कभी- कभी नियमों का तोडना
अच्छा लगता हैं।
बंधे हुए खुद से,
खुद को इस बंधन से छुड़ाना,
सच्च के होने सा लगता हैं।
बंधी पड़ी खुद के ख्यालों मे,
न जाने क्यों उलझन सा लगता है,
करके आज़ाद खुद को
खुले आसमान में पंख पसारे, सपना सा लगता है।
बंधे न जाने कितने जंजीरो से,
हर एक जंजीर काले साये सा लगता हैं।
सोचती हू तोड़ चलू,
खुद को इस जंजीरो से,
और आजाद हो जाऊ, लेकिन
ये विचार भी थोड़ा
खयाली सा लगता हैं।
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