हाँ नहीं चाहता, कुछ चीजों से ख़ुद का उभरना मैं।
तुम्हें वक्त आने पे पता चलेगा,
की इन ही आदतों से चाहता हूँ सुधरना मैं।
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ये वक्त नहीं है समझाने का।
तू आ पास बैठ,
ये वक्त है एक दूजे को समझने का।
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तकलीफ़ आज है कल नहीं होगी,
मैं ये सोच कर हंस लेता हूँ।
मेरी मुस्कान देखकर आस पास सबको ख़ुशी होगी,
मैं ये भी सोच कर हंस लेता हूँ।
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अब बात पूरी एक साथ नहीं कहीं जाती,
टुकड़ो में टूटे शब्दों से होती है।
जैसे वक्त नहीं मिलेगा अपने शब्द पूरे करने का।
या चाहते नहीं लोग समझने के लिए वक्त लेना,
सामने वाले के जज्बातों का।
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मैं बादलों से अपनी गुजारिश जाहिर करके, आज बारिश करवा दूँगा।
तुम काम के बहाने, घर के आँगन में ही रहना।
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उन्हें सब जुज़्बात बता चुका हूँ।
अगले कदमों की कहानी संग बना चुका हूँ।
पर शक करना, उनकी आदत में मशरूफ़ है शायद।
मैं अक्सर अधूरी रह जानी वाली बातें, भी पूरी बता चुका हूँ।
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हमे सीखना चाहिए, वो सीखने वाली हर चीज।
की हर अपने को ख़ुशी दे सकें, और दर्द ना आए हमारे बीच।
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खून लग जाता है अक्सर अपने हाथो में,
अपने ही सपनों का।
लगाना होता है जब मरहम,
बिखरते हुए सपनों के कारण, जख्म सह रहे अपनों का।
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कुछ लोग मांगते नहीं है इतना,
जितना उन्हें बिन मांगे मिला है।
कुछ लोग को मिलता नहीं है कुछ,
पर जुबान मीठी रखते है और दिल में खुदा है।
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कैसे शक ना करूँ अपनी ख़ुशी पर।
क्यूँकि वो तो सिर्फ़ पर्दा है।
थक कर बैठा है दुख उस पर्दे के पीछे।
झाँकती हुई उसकी आँखें,
कब हटा देंगी उसे किसको पता है।
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