आईना-ए- ज़िन्दगी   (Vishnu)
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Joined 12 April 2020


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ज़माने भर के लोगों के सुलुक में अदब कम कर दिया
इन हरे, नीले, भूरे, गुलाबी कागज ने

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ज़माने भर की दास्तां में तो हमें बुरा ही पाओगे
दीदार -ए- मुलाकात करना हक़ीक़त जान पाओगे

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कुछ ही दिनों की गु़र्बत ने हमें यूं हालात दिखाए
बहुत से रिश्तों के मुनाफ़िक़ चेहरे दिखाए
जब ढलने लगे वो गु़र्बत के दिन
वो ही रिश्ते पुराने अदब से वापस आए
अब हम क्या ही कहते उन्हें
फिर से हंस कर गले लगा आए

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पिता?
पिताजी गणित हैं, कठिन समझ में आते हैं लेकिन सत्य भी वही हैं।
माँ?
माँ प्रेम है, साहित्य है । माँ, एक कहानी सुनाती है, जो कि काल्पनिक है।
जिससे हम सीखते हैं सत्य और समझने लगते हैं गणित ।
पैसा?
पैसा जनाब, जब तक सिक्कों में था तो कदर कम थी
जब कागज बना तो दुनिया जेब में रखने लगी
लेकिन, इस पैसे की भाषा को पूरी दुनिया समझने लगी
पैसे का जिसने ज्यादा सरोकार किया,
उसने न‌ जाने कितने रिश्तों के सुलूक में अदब कम पाया।
कितने ही फूलों की खुश्बू को फीका करवाया,

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झूठ बोलता है,
वह हर भाई अपनी बहन से
कि तेरी शादी में जरा भी नहीं रोने वाला
पर जब विदाई का वक्त आए तो,
वहीं भाई कहां चुप रहने वाला

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कहने को तो लिख दूँ पन्ने हजार
पर इतने कागज, स्याही और लफ्ज़ कहाँ से लाऊँ
जिसमें बयां कर सकूँ आपका संघर्ष और प्यार

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मुनाफिक़ जमाने में फक़त आईना ही मेरे साथ रहा
मैं जब भी रोया कमबख़्त मेरे साथ रोता रहा

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मुनाफिक़ जमाने की
आबो-हवा में सुकून कहाँ
सुकून तो अब खुद के भीतर ही मिल रहा

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एक ऐसे मुनाफिक़ जमाने का बशींदा हूं
जहां लोग जमाने को देखे बिना,
हमें बुरा कहने की हिम्मत रखते हैं


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मुनाफिक़ जमाने ने धूल क्या झोंकी
कमबख़्त बेहतर दिखने लगा है

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