मन की वेदना
मेरी प्राणनप्यारी बिटिया,
सो गई कैसी निंदिया।।
जब तेरा जन्म हुआ था,
दिल में अपार हर्ष उमड़ा था।
नाम दिया तुझे "सरस्वतिया।।१।।
तूने मुझे जो प्रेम दिया था,
प्रेम ने मुझे पागल किया था।
पिला दी कौन सी जहरपुडिया।।२।।
तेरे में कितनी प्रतिभायें थीं,
जिनसे मैं अति प्रभावित था।
तुझसे बिछड़ मैं बना "निर्मोहिया"।।३।।
रचनाकार:-
आचार्य योगेन्द्र शास्त्री "निर्मोही"
(वैदिक संस्कृत प्रवक्ता नवी मुम्बई सम्पर्कसूत्र-९७६९६७७९२७ ८८९८८६९४३८
रचनाकाल:- ०८/०३/२००९ प्रात:- ०९:०० बजे।
(यह दर्दभरी वेदना मैंने अपनी सबसे पहली भतीजी के लिए लिखी थी, जो मेरे घर में ०३/०२/२००८ को पैदा हुई, मगर १ वर्ष १ माह १ दिन यानि ०४/०३/२००९ को इस जगत् को अलविदा कह कर चली गई, उसके जाने के बाद ही मैं "निर्मोही" बना।— % &-
आचार्य योगेन्द्र शास्त्री निर्मोही
अच्छा चलती हूँ सोने, अब 15 अगस्त को उठूँगी ।।
तुम्हारी प्यारी
देशभक्ति.....— % &-
'मैं चाहती हूं'
मैं समेटना चाहती हूं
दुनिया की रोशनी को अपने अंदर,
पर एक पर्दा है
जो रोशनी को अंदर आने नहीं देता।
मैं उड़ना चाहती हूं
आकाश में दूर क्षितिज तक ,
पर एक रेखा है
जो मुझे उड़ान भरने नहीं देती ।
मैं भरने चाहती हूं
सारे सपने अपनी आंखों में,
पर एक छाया है
जो सपने देखने नहीं देती ।
मैं चाहती बहुत कुछ हूं
पर चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती,
शायद मैं, डरपोक हूं, विवश हूं,कायर हूं,मजबूर हूं
यदि मुझे कुछ करना है तो सभी
विरोधी तत्वों से टक्कर लेनी होगी ,
जब आत्मविश्वास की पराकाष्ठा होगी
तभी तो जो मैं चाहती हूं
वह चाह पूरी होगी ।।
सुनीता कुलपति
(सेवानिवृत्त हिन्दी शिक्षिका)
07-01-2022-
"किसी की उदारता को उसकी दुर्बलता समझने की भूल जीवन में कभी नहीं करनी चाहिए!!
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"नाराज़गी"
वहाँ कभी मत रखियेगा
जहाँ आपको ख़ुद बताना
पड़े कि आप "नाराज़" हो
*सुप्रभात*-
कौन कहता है कि बेटियाँ पराई हैं?
ये तो सौ भाग्य के मिलने से आईं हैं।।
बडे किस्मत वाले हैं वे जिनको बेटियाँ हैं
बेटों की तरह ये भी लाती खुशियाँ हैं।
जीवन का अनमोल उपहार बेटियाँ हैं
हर पिता की आन बान शान बेटियाँ हैं।।
बेटा हीरा है तो बेटी मोती बताई है।।१।।
सबकी किस्मत में कहाँ होतीं हैं बेटियां
बोए जाते हैं बेटे पर उग आती हैं बेटियां
अपने पूरे कुल की जान होती हैं बेटियां
दिन दूनी रात चौगुनी खुशी जहां बेटियां
बेटा कुलदीपक बेटी दो कुलों को लजाई है।।२।।
बाग की खिलती हुई कलियाँ होती हैं बेटियां
माँ बाप का दर्द समझ दौडी-आती हैं बेटियां
घर समाज का नाम रोशन करती हैं बेटियां
बेटा आज है आने वाला कल होती हैं बेटियां
निर्मोही ने बेटी से पिता की पदवी पाई है।।३।।
- आचार्य योगेन्द्र शास्त्री निर्मोही
वैदिक संस्कृत प्रवक्ता, 9769677927
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मामा
दो दो माताओं सा प्यार देते हैं मामा,
हर सुख-दुःख के साथी होते हैं मामा।
ख़ुशनसीब हैं वे जिनके होते हैं मामा,
सच्चे हमदम सखा होते हैं मामा।।१।।
मामा से ही दुनिया खुशी का घर है
इनसे सारे जहाँ की खुशी तेरे दर है।
गम है क्या चीज तू रहता बेखबर है
खुशी का शांतिपुञ्ज होते हैं मामा।।२।।
मामा के बिना सब बेगाना लगता है
मामा न हो ननिहाल में सूना लगता है
मामा से इच्छाओं का मेला लगता है
माँ की कमी पूरी कर देते हैं मामा।।३।।
मामा की कमी निर्मोही समझता है
मामा चले गए, नंसार को तरसता है
ईशकृपा से ही इनका प्रेम बरसता है
स्वर्ग है वह घर जहां आते हैं मामा।।४।।
- आचार्य योगेन्द्र शास्त्री "निर्मोही"
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रोकर के आर्य बोले नयनों में नीर भरके।
कहाँ गए श्रद्धानन्द हमको अधीर करके।।
जब से तुम चले गये शुद्धिचक्र थम गया है,
वेदपाठ होता नहीं, पाखण्ड फैल गया है ।
तुम्हें क्या हो गया है गुरुदेव भलाई करके।।1।।
माता-पिता सुत नारी जग में सभी मिल जाते,
सच्चे सद्गुरु न मिलें मिल जाते हैं सारे नाते।
सच्चा ज्ञान कौन दे , मस्जिद में मंत्र पढके।।2।।
बदला किस जन्म का तूने अब्दुल रशीद लिया है?
मझधार में अटकी नैया दिल मेरा अब हिला है।
गश खाके गिर पडे हैं निर्मोही आह भर के।।3।।
रचनाकाल :- 23/12/2009, सायम्-4:00.
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*ज़िद, गुस्सा, गलतियां लालच...*
*और अपमान...*
*खर्राटों की तरह होते हैं,जो..*
*दूसरा करे तो चुभते हैं...*
*पर ख़ुद करें तो अहसास तक नहीं होता..!
🙏सुप्रभात 🙏-
हे भारत! तेरे माथे पर सजने वाली बिंदी मैं हिन्दी हूँ।
पर दुःखी हूँ आज कि अपने ही घर में मैं पराई क्यों?
प्रेमचंद ने किया गोदान मेरा, महादेवी ने किया है शृंगार
कबीर रसखान सूरदास ने दिए अनन्य भक्ति के उपहार
निराला की मैं उत्साह, जयशंकर के आत्मकथ्य का सार
सब कुछ मुझसे ही पर अपने ही घर में मैं उपेक्षित क्यों?
सामाजिक साहित्यिक आर्थिक-राजनीतिक की अभिव्यक्ति
मेरे कविपुत्र-पुत्रियों ने मुझसे पाई प्रतिष्ठा पहचानी थी शक्ति
मुझसे राष्ट्रीय एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता दयानंद की उक्ति
मेरे ही अपने मुझसे कर रहे सौतेलेपन सा व्यवहार क्यों?
मुझमें वर्णों की सुगम सुघड संघटना मेरी वैज्ञानिक रचना
मैं देववाणी संस्कृत की बेेेटी विद्वानों ने की मेरी उपासना
सर्वदा कर्म मेरा अ से अनपढ को ज्ञ तक ज्ञानी है बनाना
मैं ही छंद रस समास अलंकार, मेरे लिए नीरसता क्यों?
लोग हिन्दी पखवाड़े पर अंग्रेजी में प्रकट करें अपने विचार
माना अंग्रेजी व्यापार की भाषा पर मैं ही सिखाती व्यवहार
जहाँ मुझे सुनने को दो दबाना पडे कैसा है ये तुम्हारा प्यार
उर्दू फारसी अंग्रेजी सबको अपनाया अब मैं ही लाचार क्यों?
मैं देश की आन बान शान व हर भारतीय का स्वाभिमान हूँ
क्यों एक दिन तक सीमित रखते मैं तुम्हारी निज पहचान हूँ
मैं सबकी उन्नति की पथप्रदर्शिका, मैं सबके लिए समान हूँ
मैं तुमसे तुम मुझसे निर्मोही फिर मेरे लिए बेगानापन क्यों?-