ज़रा इश्क़ की रह गुज़र के मुसाफ़िरों से मिलता चलूं,
अपने पुराने ज़ख़्म की टीस को भुला बैठा हूं।
ख़ाक हुए मंजरों की ता'बीरात भी बाक़ी रह गई,
क्या कहूं किस-किस को वजह-ए-रंजिश बना रक्खा हूं।
रहगीर मिले कई, रोने से भी कतराने वाले,
उनका ग़म समेट कर मैं खुद से ही गिला कर बैठा हूं।
बरसों से सूखे आंसुओं को मेरी, तदबीर भी न नसीब हुई कोई,
अब शिकस्ता ख़्वाबों के मर्तूब आंचल से पलकें भीगा लेता हूं।
जज़्बातों के सैलाब के कहर से क़ल्ब का आसमान वीरां लगे,
अब तो कुर्बत से फासला, मुफ़ारक़त से फ़रेफ़्ता सज़ा रक्खा हूं।
इस दर्द के हमदर्द कई मिले मुझे, कोई रोने वाले,कोई समझाने वाले,
मेरी राह-ए-हयात की तहरीर ग़लत, शख्सियत भी अपनी मैं मिटा आया हूं।
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