मुझे एक नज़्म लिखनी है,
सच्चाई जिसमे दिखनी है।
अल्फ़ाज़ लेकिन फीके हैं,
खट्टे हैं, मज़मून सभी,
दिल तो जैसे मर ही गया,
सुन के नज़्म का नाम अभी।
क्या लिखें, कि ख़्वाब झूठे हैं?
या ये कि मौसम रूठे हैं?
चलो लिख दें अगर, रूह का हाल,
सह पाओगे, नफ़रत का जाल?
और अगर क़यामत लिख भी दी,
कोई और ज़मानत रख भी दी,
तो क्या, आंख बिछा पाओगे?
नई सहर के सूरज को,
अभी बुला के ला पाओगे?
नहीं, तो कोई बात नहीं,
रहने दो ये सारे खेल।
अल्फाज़ सस्ते नहीं हैं मेरे,
जिनके हो, सब उनवां से मेल।
लिखेंगे, जान कहेगी तब,
नज़्म हो चाहे अफ़साना,
और ये तो तब ही होगा अब,
जब हँसेगा कोई मयख़ाना।
-Sadaf Afreen.
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Thoughts.
Sensibilities.
Notions.
Rationality.
Conclusions.
Death.
Resurrection.
Reality. read more
फ़िक्र होती है।
मज़मूनों से,
मुलाक़ातों की,
अफ़सानों के,
जज़्बातों की।
कल तक फ़क़त जो मेरे थे,
मेरे आसमाँ के सवेरे थे।
उनवान वो सारे छंट चुके हैं,
वो क़तरा क़तरा बंट चुके हैं।
जो धूप छाओं में फिरते हैं,
और उठ ते हैं, तो गिरते हैं।
बेमंज़िल होकर दर बदर,
कभी इनके दर, कभी उनके घर।
बस इतनी है जागीर हमारी,
और ये ही हैं ताबीर हमारी।
आंखों में दरिया ले लेकर,
हम आग में जलने आये हैं,
हम अपनी उल्फ़त के सदके में,
वही नज़्में समेट के लाये हैं।
-
सर्द रातें,
मद्धिम रोशनी,
अब ज़िन्दगी लगने लगे हैं।
रस्ते अनदेखे,
धुँआ धुँआ,
अपनी मंज़िल हो जैसे।
काँपते क़दम,
लड़खड़ाते लफ्ज़,
हिचकिचाहट की निशानियाँ।
ये सर्दियाँ,
अपनी धुंध में,
मेरी सब नाकामियां,
लपेट लायीं हैं।-
ये कौन जाग रहा है,
आसमान में?
किसकी माँ ने उसे,
आवाज़ न दी अब तक?
चाँद है?
याद है?
उलझन है?
शिकन है?
क्या है,
जो जागता है,
और सोने नहीं देता।-
सब हौसला मनाने का
साँसों में खींच लेते थे,
हम भी कभी सिकंदर थे,
हम रिश्ते सींच लेते थे।
-
रंगों के ढंग तो देखो यार।
जज़्बातों के आसमां से,
वो लाएँ अपना दिल,
हम कुछ नज़्में उधार।
और उस जुगलबंदी में फिर,
काग़ज़ इठलाया बार बार।-
चाँद अब भी तो ठहरा हुआ है,
कहाँ आफ़ताब का पहरा हुआ है?
रात अब भी तुलू-ए-सहर से,
अपना वजूद बचाती फिर रही है।
और ये ओस, देखते नहीं क्या तुम?
भीगी, ग़मगीन, मुसलसल गिर रही है।
हमज़बा सितारे, एक ही आवाज़ में,
ठहर गए हैं जैसे, एक ही साज़ में।
स्याह बादल इतरा रहा है,
सन्नाटा ज़ोर से, गा रहा है।
दरिया, परबत भी तो वहीं हैं,
उनको भी कोई जल्दी नहीं है।
तुम भी उजलत से किनारा कर लो,
अभी ग़म है, ग़म का सहारा कर लो।
अभी सर्द नाकामियों का हिस्सा है,
जो भी ये ज़ीस्त का किस्सा है।
आएंगे दिन बहार के भी,
और वस्ल-ए-यार के भी।
जब वक़्त आएगा, तो रख लेना,
खुशियाँ भी तब ही चख लेना!-