लोगों के दिन को, शाम करूंगा। फिर जाके, आराम करूंगा।
उसको देके, रौशनी अपनी। रातें उसकी, सरेआम करूंगा।
रातों में, जागा ही करता। पर दिन भी तेरे, नाम करूंगा।
तू चाहे कहना, मैं आवारा हूं। ना मैं तुझको फ़िर, बदनाम करूंगा।
रांझा तू होना, हीर मैं होऊं। तेरे इश्क़ को, सलाम करूंगा।
तू चाहे मुझको, छोड़ भी देना। मैं फ़िर भी तेरा, कलाम करूंगा।-
हमने जो चाहा, वो कुछ और नहीं मेरी आंखों का नूर था।
तय हुआ जो हमारा उसमें भी एक सुरूर था।
मगर
ख़ुदा ने बक्शा जिसे झोली में मेरी,
वो भी एक कोहिनूर था।-
मैं लफ़्ज़ नहीं, होंठों पे अब, यादों को संभाले रखता हूं।
तुम करते होंगे याद कभी, यादों में कहां अब रहता हूं ।
जो जला है जग को करने रौशन, उस लौ को संभाले रखता हूं,
मैं कण कण में हूं बसने वाला, किसी मन पे कहां अब रूकता हूं।
मैं उड़ता हूं अब आसमान में बादल बन के बैठा हूं,
मैं सच्चाई का एक परिंदा, तुझे पाप गिनाता रहता हूं।
मैं मंजिल हूं तू राह मेरी, क्यों फ़िर पूरी ना हो चाह मेरी,
मैं भूतकाल का आदम हूं, तुझसे क्या बिगड़े हाल मेरा।
मैं राँझे का हूं इश्क़ अधूरा, तू सोनी मैं महिवाल तेरा,
मैं मध्य पानी के एक भंवर हूं, डूबेगा तू, बुरा हाल तेरा।-
तेरे हुस्न पे गर ना लिखूं तो, खाक़ शायर।
तुझे ना कहूं गंगा तो, मैं नापाक शायर।।
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मैं अट्ठाइस तक आकर मुहब्बत से मुकर जाऊंगा,
मैं फ़रवरी की उनतीश हूं तुझे बहुत सताऊंगा।
मैंने तो हमेशा पहली को चुना, पर रब पे कैसे ज़ोर चलाऊंगा।
मैं फ़रवरी की उनतीश हूं, अब से चौथे बरस में ही आऊंगा।
मैं कैसे चार बरस बिन तेरे रह पाऊंगा,
मैं फ़रवरी की उनतीश हूं तुझे याद तो बहुत आऊंगा।
तुझे बहुत सताऊंगा.........
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वो हर इक शख़्स से पराई थी।
कभी इसको कभी उसको,
जिसको ज़रूरत पड़ी, उसको पसंद आयी थी।
जब अंधेरों में साथ नहीं था कोई मेरे,
सबका साथ छोड़, वो मेरे संग आयी थी।
कहीं पूरी, कहीं अधूरी, कहीं तो शून्य ही मिल पायी थी,
साँझ होते होते वो मेरे और क़रीब आयी थी,
वो कोई और नहीं..
मेरी ही परछाई थी।-
दुनिया में हैं कैसे कैसे लोग,
जो मुझे मारकर मेरी ही किताब लिखते हैं.....
कि पहले तो ज़रिया बनाया गया,
फिर कहीं दरिया में डुबाया गया।
मगर डूबने पर भी सांसें चल रही थी,
तो नशेमन में कैद कर दो घूंट पिलाया गया।
जब कुछ भी असर ना कर पाया उनका इल्म,
तो इश्क़ का ज़ाल बिछाकर ज़ुल्म कराया गया।
मैं वो जो हिचकियां भी संभल कर लेता हूं,
मेरी मासूमियत पे ज़ुरम का नकाब पहनाया गया।
कि दुनिया में हैं ऐसे कैसे लोग,
जो अपनी सलामती से ज्यादा मेरी मौत की फ़िक्र करते हैं।
रहते है सदा ही पास अपने महबूब के, पर ज़िक्र मेरा किया करते हैं।
दुनिया में आए ये कैसे लोग.......-
मैं जब पहले ही बिछा आया था मखमल,
तो किसने रख दिए तेरी राहों में ये शूल।
तूने जो मंगवाया था बाज़ार से, मैं गया था लेकिन,
पहले ही बिक गये थे सारे फूल।
मैं माँग चुका हूं पहले भी माफ़ी, जो हुई थी मुझसे वो भूल।
तू फ़िर क्यों कभी मेरी दुआ में नहीं होता क़बूल।
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अब शब्दों में नहीं, शब में ढूंढ रहा हूं,
एक पेड़ के नीचे पड़े हुए पत्थर को पूज रहा हूं,
मैं रब को ढूंढ रहा हूं।
तुमने बोला यहां मिलेगा उसने बोला वहां मिलेगा,
जाने किस किसको पूछ रहा हूं,
मैं रब को ढूंढ रहा हूं।
कुछ लहराएं विजय पताका, कुछ करके गुंबद गोल,
रास्ते तो हैं अनेकों, अब किसका करूं मैं मोल।
इस सुलझी सी उलझन में डूब रहा हूं,
मैं रब को ढूंढ रहा हूं।-
कभी तू मुझको गले लगाए,
मैं रज के रोऊं, तू मुझे हंसाए।
कभी तो बिछडूंगा मैं भी तुझसे,
तू रब के घर में मुझे सुलाए।
मैं मांगू तुझसे बंदिशों की चाहत,
तू मेरी आंखों से मांगे राहत।
हँसी की चाहत हसीन लगती,
हँसी हँसी में मुझे मनाए।
कभी तू मुझको गले लगाए.......-