ये रातें चुभती हैं, सरकती हैं मेरे सिरहाने,
फ़िर किसी बहाने कि, तू याद आ जाये मुझको,
मैं रोक चुका हूँ जिसको पहले भी,
मैं खो चुका हूँ उनको पहले भी,
अब उनको खोने का ख्याल नहीं रखता,
दिल में है बहुत कुछ फिर भी कोई मलाल नहीं रखता,
मैं चाँद रोशनी से नजरें चुरा लेता हूँ,
उसे देख पलकें झुका लेता हूँ,
मैं फिर भी नजरों के मायने नहीं रखता,
तुम्हें देखता हूँ बस आईने नहीं रखता,
मैं शाम होने पर आंखें मूंद लेता हूँ,
कि कहीं वो रात फिर ना आ जाये,
मेरे कुछ सपनों को कोई खा ना जाये,
इसलिये मैं सिरहाने से हटकर सोता हूँ,
रातें गुज़रती हैं फिर भी नहीं सोता हूँ।
क्योंकि ये रातें चुभती हैं.......
सरकती हैं मेरे सिरहाने.......
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बरसात का आलम कुछ इस कदर है कि
अब तक तो लोगों ने छतों से कपड़े भी उतार चुके होंगे
पर एक तू है कि मेरे जेहन से जा ही नहीं रहा है-
इक उम्र थक चुकी है, सिरहाने की खोज में,
इक मैं हूँ जो बिस्तर होते हुए भी जाग रहा हूँ।-
ज़िम्मेदारी ने ला पटका खड़े बाजार में,
घर से निकला था जो बेटा, नौकरी को।
हाथ में थैला डिग्री भर के, कहीं खडा वो,
पैदल-पैदल अपने रस्ते चल पड़ा वो।
जहां भी जाता, पूछा जाता, गांधी थैले में लाए हो क्या?
वो खनकती हुई जेबों से फिर आंसू छुपाता।
थक हार के पहुंचा जब वो चौखट घर के,
देखे उसको आंखें सब अब घूर-घूर के।
चेहरे के पसीने से कुछ थका हुआ था,
आँखों के नगीने में कुछ लगा हुआ था।
क्यों, कहाँ, कब और कैसे, ये तो सबने पूछा।
पर क्या तूने खाना खाया? ये बस माँ ने पूछा।-
नैन की तो बात तेरे,
बात ही कुछ और है।
बात हो गर मौत की तो,
हम तो बस जुल्फों से तेरी यूँ लिपटना चाहेंगे।-
तू चौदहवीं का चांद है, मैं हूं उसी की इक सुबह,
तू है चमकता चंद्रमा, मैं रात सा घनघोर हूं।
तू है बनारस घाट सा, मैं तंग गलियों का बसेरा,
तू प्यार से पाला हुआ, मैं प्यार का हारा हुआ।
बस फ़र्क इतना सा है तुझमें,
मोम सा तू खुरदुरा, मैं रेत सा हूं मखमली।
तू बुझ के जलता, जल के बुझता,
तेरी लौ के नीचे संसार चलता।
और
तेरे हुस्न पे गर ना लिखूं तो खाक़ शायर,
तुझे ना कहूं गंगा तो मैं नापाक शायर।-
लोगों के दिन को, शाम करूंगा। फिर जाके, आराम करूंगा।
उसको देके, रौशनी अपनी। रातें उसकी, सरेआम करूंगा।
रातों में, जागा ही करता। पर दिन भी तेरे, नाम करूंगा।
तू चाहे कहना, मैं आवारा हूं। ना मैं तुझको फ़िर, बदनाम करूंगा।
रांझा तू होना, हीर मैं होऊं। तेरे इश्क़ को, सलाम करूंगा।
तू चाहे मुझको, छोड़ भी देना। मैं फ़िर भी तेरा, कलाम करूंगा।-
हमने जो चाहा, वो कुछ और नहीं मेरी आंखों का नूर था।
तय हुआ जो हमारा उसमें भी एक सुरूर था।
मगर
ख़ुदा ने बक्शा जिसे झोली में मेरी,
वो भी एक कोहिनूर था।-
मैं लफ़्ज़ नहीं, होंठों पे अब, यादों को संभाले रखता हूं।
तुम करते होंगे याद कभी, यादों में कहां अब रहता हूं ।
जो जला है जग को करने रौशन, उस लौ को संभाले रखता हूं,
मैं कण कण में हूं बसने वाला, किसी मन पे कहां अब रूकता हूं।
मैं उड़ता हूं अब आसमान में बादल बन के बैठा हूं,
मैं सच्चाई का एक परिंदा, तुझे पाप गिनाता रहता हूं।
मैं मंजिल हूं तू राह मेरी, क्यों फ़िर पूरी ना हो चाह मेरी,
मैं भूतकाल का आदम हूं, तुझसे क्या बिगड़े हाल मेरा।
मैं राँझे का हूं इश्क़ अधूरा, तू सोनी मैं महिवाल तेरा,
मैं मध्य पानी के एक भंवर हूं, डूबेगा तू, बुरा हाल तेरा।-
तेरे हुस्न पे गर ना लिखूं तो, खाक़ शायर।
तुझे ना कहूं गंगा तो, मैं नापाक शायर।।
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