वो क्यों, दूर मुझसे है खड़ी, जो साथ मेरे है बढ़ी!
वो हाथ जिसके हाथ में था, साथ मेरे क्यों नहीं!
वो जो रास्ते कांटों तले, क्यों फूल बन बरसे नहीं!
वो एक पहर का था समय, अब क्यों कभी रुकता नहीं!
वो तेरे लफ्जों का था खिलना, अब शाख पर पत्ते नहीं!
वो थी समय की दास्तां, तुम भी थे मेरे दरमियां कभी।
वो स्तब्ध सा था तेरा होना, अवधारणा अब क्यों नहीं!
मंजूर थे वो रास्ते, चलना कभी जिन पर नहीं!
तुम हो पुरातन सी कला, वो हाथ अब ज़िंदा नहीं!
क्यों हो गई बेबाक सी, कानों में प्यास मेरे नहीं!
तुम थी मेरी सब कुछ मेरी, अब हो गई शमशान सी
वो है चिता जो बुझ गई, क्यों राख भी मिलती नहीं!
तुम हो धरा की वो शिला, छूकर भी जो इंसा नही!
कोशिश करूं के जोड़ दूं, जुड़ने से अब तुम खुश नहीं!
अब रह गई बस मोम सी, पिघली हुई यादें तेरी!
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