तेरे बिना...
तेरे बिना मेरी दुनियां अधूरी,
ढूंडू कहां.. मैं. तुझे धुंडू कहां !
जबसे भुले वो द्वार तुम्हारे...
जबसे भुले वो द्वार तुम्हारे,
रूठी किस्मत अपने पराये,
दूर हुए सारे साथी हमारे,
जगमग सितारे बुझ गए सारे,
बुझ गए सारे...
बिन बादल सावन भी बैरी,
जाऊं कहां...प्यास बुझाऊं कहां,
तेरे बिना मेरी दुनियां अधूरी,
ढूंडू कहां मैं तुझे धुंडू कहां !
कौन है वो जो नैया पार लगायें...
कौन है वो जो नैया पार लगायें,
मांझी बिना हमसे ना हो पायें,
राह भटककर दुर चलें आयें,
संगी साथी हमको ना बचायें,
हमको ना बचायें...
डर लगता है परछाई से भी,
ढूंडू कहां मैं तुझे धुंडू कहां,
तेरे बिना मेरी दुनियां अधूरी,
ढूंडू कहां मैं तुझे धुंडू कहां !
ढूंडू कहां...
ढूंडू कहां...
ढूंडू कहां..........
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आओ दोस्तों मानवता की राह अपनाएं एक दूजे का ... read more
#नमन मंच
#विषय महल का कंगुरा
#दिनांक २४/१०/२०२४
#विद्या कविता
लुभाती सबको
सौंदर्य महल की लालिमा,
ख्वाब था हमारा
बनकर कंगुरा शोहरत पाना !
मिला जब मैं
नींव के पत्थर से,
खड़ा जिस पर महल ये !
सुनकर दास्तां
उसके दर्द की कांप उठी रूह हमारी !
नहीं रही हसरत
दिखावे का कंगुरा बनने की,
तमन्ना है नींव का
हिस्सा बनकर पत्थर को राहत देने की !
स्वरचित मौलिक रचना
राधेश्याम खटीक
भीलवाड़ा राजस्थान
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जिसने जीवन चक्र के रहस्य को समझ कर,
परम तत्व परमात्मा की अधीनता स्वीकार करके,
उसकी रजा में राज़ी रहना सीख लिया !
असहज परिस्थितियों में खुद को सहज
महसूस कर लिया !
ऐसे समर्पित कर्मयोगी के जीवन में
सफलता व असफलता का कोई
महत्व नहीं होता !
उसके लिए कर्म का अर्थ जीवन का
सदुपयोग होता है !-
राज यह जब से पता चला आए हम
मेहमान बनकर प्रकृति के इस रंगमंच में !
हसरत अब नहीं रही दौलत का
महल खड़ा करने की शिकवा भी
नहीं मुझे बदहाल भरी कंगाली से !
सीख लिया जिना हमने बिना रंगत
की तंगहाली में,बना लिया हमसफ़र
चलते हुए एकांत तनहाइयों को !
कहा किसी ने बहाने हैं ये काम
न करने वालों के, जलते हो पैसे
वालों से कहा ये दौलत वालों ने !
ध्यान किया जब मैंने प्रभु भक्तों के
जीवन दर्पण का,कब सुकून से जीने
दिया प्रकृति के दुश्मन हैवानों ने !
करके अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन चल
पड़ो नए सफर की ओर यही
इस जीवन की कहानी है !
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मनमोहन तेरा श्याम रूप कजरारा
उंगली पर तेरे गोवर्धन रूप निराला !
तेरी एक मुस्कान पर दीवानी हो गई गोपिया !
मुरली की तान पर माखन की मटकी चटकाई !
सास के ताने सह गई तेरी एक झलक के वास्ते !
छोड़ दिया घर बार भी तेरे संग रास के आनंद में !
राधा संग जमुना तट पर रास के आनंद का क्या अद्भुत नजारा !
पुण्य कर्म किए हमने कभी बना के चरण 'रज'
शामिल कर ले रासलीला के उस नजारे में !
कृपा तेरी हो जाए हम भी देखें
रासलीला का वह अद्भुत नजारा !
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चलना जब भी सीखा हमनें बचपने में
बेड़ियों में जकड़ के रहे अनुशासन के
बड़ा अखरता हर बात में टोका टाकी !
जहर से ज्यादा कड़वे लगते
संस्कार व आदर्शों के वह बोल
बचपन बीता जवानी आई
अब वो बेरहम बेड़ियों वाली
बात समझ आई समाज की !
अभी जवानी का अल्हड़पन
देखा ही कहां बंदिशों की नई
फ़ेहरिस्त का फरमान आ धमका
इस बार चाल चलन व लोक लाज
की दी दुहाई परिंदों से उड़ने वाले
मन पर फिर मुश्किलात आई !
स्वच्छंद विचरण करने वाला मन
कर बैठा दुश्मनी जमाने से
निकली जवानी आया बुढ़ापा
उन्हीं बुजुर्गों की नसीहतों को
अपने बच्चों को देते दुहाई !
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नींद न देखती कंकड़ पत्थर न हीं धूप छांव,
करके बिछौना धरती मां का ओढ़ले आकाश !
जिस सुकून को तुम ढूंढ़ते महलों में
वह तो सोया इस गरीब के साथ !
चले पूजनें मंदिर में बैकुंठ नाथ को
दीनानाथ चला हाथ बंटाने मजदूर के साथ !
चाहते हो कृपा अगर दीनबंधु की
आधार बना लो दया धर्म का नित्य कर्म में !
स्वरचित मौलिक रचना
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दुख और सुख में हरदम खड़ी तू मेरे साथ
उन खुशियों को छोड़ आई अपने मायके
जो कभी थी तुम्हारी जिंदगी के साथ !
रहने तो आई थी कभी तू मेरे साथ
ऐसा लगता जैसे रहता हूं मैं तेरे साथ !
सोचता हूं ना आई होती जिंदगी में मेरे
क्या होता इस घर परिवार का बगैर तेरे !
घर को मेरे अपना लिया आपने ऐसे
युगो से इसी घर की तलाश थी जैसे !
रौनक अगर जन्नत की हूर से है
तो आंगन में मेरे जैसे कोहिनूर है !
फर्ज अदा कर दिए दुनिया के
हौंसले के तेरे बलबूते पे,
चुका न पाऊंगा ऋण तेरा
जन्म जन्मांतर तक !
मिले जन्म कभी फिर से
दास बनकर सेवा करूं मन से
यही दुआ करता हूं रब से !
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विनम्रता है अति महान
जिसके आगे झुकता सारा जहान
भरी जिसने भी हौंसले की उड़ान
धैर्य बल से ही पहुंचा आसमान !
जोखिम बड़ा है गिरने का
यह रिस्क अगर तुम उठाते हो
हांसिल कर सकते हो सब कुछ
जो तुम जीवन में पाना चाहते हो !
करके अपने डर को दूर
कदम मंजिल की ओर बढ़ाते हो
दृढ़ करके अपने 'रब' पे भरोसा
सहनशीलता अगर दिखाते हो !
जज्बा तुम्हारा देखकर
मंजिल खुद चलकर आएगी
गर्दिश में थे जो कभी सितारे
होगी गिनती अब चांद तारों में !
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हे नारी तू नारायणी
हम सब की तू जीवनदायिनी
करते रहे अत्याचार तुझ पर
एक लाचार अबला समझकर !
उफ..न किया फिर भी तुमने
दर्द को पी लिया अमृत समझ कर
गुनाहों को हमारे बक्श दिया
भटका हुआ मासूम समझकर !
ना हालात तुमको तोड़ पाए
ना वक्त की मार झकझोर पाई
अपनों के दिए हुए जख्म भी
अपना लिए उनका प्यार समझ कर !
जमाने की बेरुखी का क्या कहना
वक्त क्या बदला उन लोगों ने भी
मुंह फेर लिया जो तेरी गोदी में खेले !
बेचैन था जमाना बर्बादी के
तमाशे पर जश्न मनाने के लिए,
तू तो नारायणी जो ठहरी
नारायण की तुमसे प्रीत जो गहरी
अंत समय में लाज रखी तेरे सम्मान की !
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