आसमां पर किसी इक का हक़ नहीं,
चलते रहो बस रूक कर थक नहीं।
मैंने आज़मा कर देख लिया इन सबको,
मुझे सब पर यकीन किसी पर शक नहीं।
रिश्तों के सौदागरों से बच कर रहो तुम,
किसी का एहसान अपने पास तू रख नहीं।
नज़र बनाए रखो तुम अपनी मंजिलों पर,
तुम उड़ते बाज हो कोई डूबते वक नहीं।
अनजानों पर भरोसा क्यूं करते हो तुम,
ये सब इंसान ही तो हैं कोई रब नहीं।
इन तारीफों की रातों में खोना नहीं तुम,
होगी तुम्हारी सहर है कोई गुजरी शब नहीं।
अपनी कला पर क़लम चलाते रहो तुम,
छोड़ेगी साथ नहीं हम जब तक हम नहीं।
@k_a_a_v_i_s_h
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इन लफ़्ज़ों से अपनी पहचान लेनें आया हूं।"
कभी मिरे शह़र आकर देखो तुम,
गुमनामी के पहर में रहकर देखो तुम।
साजिशों से बचकर भाग रहे हैं हम,
इक बार सच बोलकर तो देखो तुम।
पड़ोस में नहीं दीमक घर की दीवारों में है,
सियासतों की हदों में जाकर देखो तुम।
अरसे का रिश्ता है इस मिट्टी से मिरा,
इसकी मह़क में कभी डूबकर देखो तुम।
फ़र्क करते हैं धर्म मज़हब जाति का,
ख़ून तो लाल है मिला कर देखो तुम।
दर्द के आंसू यूं बांटा न करो सबसे,
अकेले में कभी मुस्करा कर देखो तुम।
दुनियादारी की गुलामी इतनी मत करो,
ख़ुदा के आगे सजदा करके देखो तुम।
@k_a_a_v_i_s_h
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इन अश्कों को आंखों से गिरने की इजाज़त नहीं,
मयखाने में ज़ामों को छलकने की इजाज़त नहीं।
तुम चल दिए हो तो चले जाओ हमेशा के लिए,
तुम्हें अब पलट कर देखने की भी इजाज़त नहीं।
ये मिट्टी मिरे हिंदोस्तान की हो ही नहीं सकती,
जहां हिंदी को उर्दू से गले मिलने की इजाज़त नहीं।
मुझे भरोसा है मिरे किए काग़ज़ के कर्मों पर,
इस वक़्त को मुझे आइना दिखाने की इजाज़त नहीं।
मैं जो लिखूं वो मिरी ही हक़ीक़त हो जाए इक दिन,
तब ख्बावों को मिरी नींदों में आने की इजाज़त नहीं।
ख़ुदा करे कि मिरे जैसा सफ़र किसी को न मिले,
अब उन रास्तों पर किसी को आने की इजाज़त नहीं।
ये हो कि मिरी ग़ज़लें पसंद आएं या ना आएं तुम्हें,
मगर सुने बिना भी तो कहीं जाने की इजाज़त नहीं।
@k_a_a_v_i_s_h-
ईंटों पर ईंट रखने से मकान बनता है,
लहरों के आने से समंदर का किनारा बनता है।
इस महफ़िल के तमाम लोगों को मैं जानता तक नहीं,
मगर इन्हीं की तालियों से शायर ,शायर बनता है।
ये हार और जीत दो पहलू हैं हर सफ़र के,
दोनों सुईयों के साथ चलने से ही वक़्त बनता है।
आसानी से मिल गई शानो-शौकत उसे विरासत में,
कितने हाथों के कटने के बाद कोई 'ताज' बनता है।
कभी अपने काग़ज़ का साथ मत छोड़ देना तुम,
इसी इंतज़ार के सब्र से ही फल मीठा बनता है।
जिन जामुनों को खाकर बचपन गुजरा है हमने,
आज उन्हीं से इस शह़र में हमारा ज़ाम बनता है।
अपनी जिंदगी में मर्यादा और त्याग लाओ कभी,
ऐसे ही नहीं कभी कोई भी इंसान राम बनता है।
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किरदार पर दाग़ है और खुद को आइना बताते हैं लोग,
अपनों के तो हुए नहीं और हमें अपना बताते हैं लोग।
मिरी तब की खूबियों का प्रचार नहीं किया जमाने में,
अब मिरी खामियों को सरेआम क्यूं बताते हैं लोग।
मिरी बस्ती की कीमत वहां के ख्बाव बता देंगे,
फिर अपनी दौलतों का गुरूर किसे दिखाते हैं लोग।
मिरे बुरे वक़्त में मुझे अकेला छोड़ गए थे सब,
तो अब मिरी खुशियों में आकर क्या जताते हैं लोग।
मिरे चेहरे का रंग काला कैसे बता रहे थे ये सब,
ख़ुद सफेद होकर चेहरे को चेहरे से छुपाते हैं लोग।
मिरी भूख तो मंजिलों तक मिट ही जाएगी इक दिन,
इक मुठ्ठी भर पेट के लिए किसका कितना खाते हैं लोग।
मिरे सच लिखने के ऐब पर गुनाहों का इल्ज़ाम लगाया,
और अपनी शोहरतें किसके ज़मीर पर लिखवाते हैं लोग।
@k_a_a_v_i_s_h
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मैंने देखे थे जो ख्वाब, वो उन्हें पूरा करती है,
किरदार एक ही है उसका, काम दूना करती है।
कभी नहीं मांगा है खुदा से खुद के लिए,
मगर मेरी खुशियों के लिए रोज़े करती है।
जो आदत उसकी दादी से उसमें चली आई है,
मैं घर न पहुंचने तक वो सोया नहीं करती है।
आंखों में दो आंसू छलक आए थे ख़ुशी के उसके आने पर,
आज उसकी विदाई में वो काम शहनाई करती है।
इस शह़र में आजादी का ये हाल है ए- मालिक,
खुद तो मां है, पर बेटी को जन्म देने से डरती है।
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वो हर रोज़ किसी बहाने से मुझसे मिलने आती है,
जैसे सुबह पेड़ों की शाख पर कली खिलने आती हैं।
उसकी तीखी आंखों पर लगी काजल की महीन लकीरें,
जैसे बड़े गहरे शांत समंदर में डूबती कश्ती के किनारे।
बाल खोलते ही सरकते हुए ऐसे कमर तक आते हैं,
जैसे पहाड़ों के पीछे से गिरते झरने रास्ते बनाते हैं।
वो आगे की घुंघराली जुल्फें जब चेहरे पर आती हैं,
जैसे अपराजिता की बेलें पेड़ों से लिपट जाती हैं।
वो उसकी नाक में पहनी नथ पर चमकता हीरा,
जैसे रात में चमकता चांद के पास कोई तारा।
और उसके गुलाबी होठों से लफ्ज़ ऐसे बहते हैं,
जैसे तितलियों को फूल खुद आने को कहते हैं।
उसके हाथ पर बंधी पतले फीते वाली घड़ी ऐसी लगती है,
जैसे रिश्तों को पिरोने वाली कोई डोर बड़ी अच्छी लगती है।
उसके कानों में लटकते बड़े बड़े झुमके ऐसे लगते हैं,
जैसे सुबह और शाम एक ही दिन के दो चेहरे लगते हैं।
उसकी होंठों के नीचे दहिने तरफ का वो तिल,
जैसे नुक्तों के साथ धड़कता है मेरी ग़ज़लों का दिल।
हल्के नीले रंग के सूट उस पर बड़ा ग़ज़ब लगता है,
जैसे दुपट्टे की तरह आसमां उसने पहना लगता है।
तो मेरी ख्बावों की मल्लिका ऐसी दिखती है,
असल जिंदगी से अलग मुझसे बेइंतहा मोहब्ब्त करती है।
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मैं बेनाम आंसू,
बारिश की बूंद होना चाहता हूं।
मैं आंखों के कैदखानों से निकल कर,
आज़ाद हवाओं के साथ बहना चाहता हूं।
मैं आंखों के कोनों में छिपने वाली जगह से,
बाहर आकर खुले मैदान में बैठना चाहता हूं।
मैं भीगी पलकों के साथ सोना नहीं,
सहर की ओस में जागना चाहता हूं।
मैं आंखों की नमकीन नमी से निकल कर,
बारिश की फुहार की तरह मीठा होना चाहता हूं।
मैं आंखों के शांत और गहरे समंदर में नहीं,
रूई के पहाड़ों के पीछे बारिशों के संग रहना चाहता हूं।
मैं नहीं आया तेरे पीछे तेरे जाने के बाद में,
मगर मैं बारिशों की बूंदों से रोज़ मिलना चाहता हूं।
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किसी की आहट चौंका देती है गहरी नींद में भी,
अब मैं आंखों के दरवाज़े हमेशा खुले रखता हूं।
तुम्हारे जाने के बाद कुछ दिन तक मैंने पूछा था इनसे,
मगर इन खिड़कियों के चेहरों पर अब परदे रखता हूं।
तुम थीं तो ये बादल आ आ कर चले गए थे,
अब इनकी बारिशों को मैं वहम में रखता हूं।
तुम्हारे कदमों के निशानों के साथ मिरी सांसें भी चली गईं,
जमाने के लिए इन हवाओं को बस ज़हन में रखता हूं।
पहली मोहब्बत थी तो रूसवाई बर्दाश्त कर ही नहीं पाए,
मैं हर कागज़ को क़लम के साथ ही रखता हूं।
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