आख़िरी ख़त
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Ignorance is better than D... read more
हर सू दिखने वाला शख़्स अनजाना लगता है,
मगर उनका ग़म मुझे जाना पहचाना लगता है।
ढूँढता फिरता हूँ दुनिया में एक लम्हा फुर्सत का,
ख़ुद की मसरूफ़ियत महज़ एक बहाना लगता है।
किसी ने पूछा मुझसे ग़म छुपाने की अदाकारी का राज़,
मैंने उनसे कहा कि साहब इसमें तो एक ज़माना लगता है ।
घुट-घुट कर ही सही जी तो रहा है ज़िंदगी,
हर आदमी इस ज़िंदगी का दीवाना लगता है।
ऐ जिंदगी ! हाँ माना कि मैं सिफ़र ही सही,
तू कोई पोथी या कोई अफ़साना लगता है।
मुझसे दूर जाने की हसरतें लिए बैठा है वो,
एक मैं ही हूँ जिसे उसका शहर ठिकाना लगता है।
अक्सर शायरी में शामिल है तकलीफें दूसरों की,
मुझे हर आदमी का जख़्म अपना लगता है।
बार-बार शम्मा के नूर से चला जाता हूँ उसकी तरफ़,
अनाम पतंगा है जिसे वो शरर ही आशियाना लगता है।-
मृत्यु मेरा वरण करने से पूर्व
जान लेना मेरी अभिलाषाएँ,
पूर्ण हैं या रिक्त रह गई
मेरी मानवीय परिभाषाएँ।
क्या निभा पाई हूँ
उत्तरदायित्वों को भली प्रकार,
क्या कभी बनाया है स्वप्नों का संसार;
अल्प समय देना,कर सकूँ सबका आभार।
क्या हूँ मैं तुम्हें आलिंगन करने योग्य ,
क्या मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया है।
क्या किया है सिक्त,
मैंने लहू से लक्ष्य को।
यदि नहीं ख़री उतरती हूँ मैं ,
तुम्हारे मानदंडों पर ।
हे मृत्यु ! त्यज देना मुझे,
अनाम रहने के लिए।-
जब तुम गडाए रहते हो नज़र,
चमचमाती हुई स्क्रीन पर।
तुम्हारी आँखें व्यस्त रहती हैं किसी चर्चा में ,
तुम्हारे कान मेरी आवाज़ नहीं सुन पाते ।
जाने कौन सी धुन है जिसमें तुम, मगन रहते हो,
हमेशा दिन से रात, रात से दिन तक।
मेरी ध्वनि की आवृत्ति बहुत कम हो गई है,
मेरी उपस्थिति शून्य के समान है तुम्हारे लिए।
जिस पर तुम टकटकी लगाए देखते रहते हो,
वो मुझसे अधिक महत्वपूर्ण हो गया है ।
तुम्हारे बावजूद मैं अकेली हूँ,
ये घर अब काटने को दौड़ता है।
तुम्हारे और मेरे मध्य ही तो संवादों की अल्पता है ,
तो क्या हुआ मैंने दीवारों से बातें करना शुरू कर दिया है।-
मौन मात्र मौन नहीं है
उसमें छिपे हैं असंख्य शब्द
किसी गर्त में जाने से स्वयं को रोकते हुए
अपने अस्तित्व को ढूँढते हुए ।
ब्रह्मांड के किसी सूक्ष्म कण पर ,
कदाचित उनका स्थान निर्धारित किया गया है।
किसी विध्वंसक विस्फोटक की भाँति
धीमे-धीमे मौन और क्रोध
की आँच पर पकते हैं
अणु या परमाणु के रूप में कुछ शब्द।-
किताबों के पन्नों पर अल्फ़ाज़ नहीं अँगार लिख दूँ,
तू इजाज़त दे अगर मोहब्बत का अख़बार लिख दूँ।
समेट कर कुछ फुर्सत का वक्त अपनी कलम में,
अनंत तक जाकर अपने मन का विस्तार लिख दूँ।
कभी किसी मोड़ पर कोई पूछ ले मेरी जात क्या है,
हिंदुस्तानी हूँ अपनी कलम से यह बार-बार लिख दूँ ।
दबाए , छुपाए या बाँध भी दे कोई बेड़ियों में मुझको,
तोड़कर हर बंधन मैं अपना विद्रोही विचार लिख दूँ।
तुम चाहे तमाम कोशिशें करना रोकने की अनाम को,
बनाकर खून को स्याही इंकलाबी गीत हज़ार लिख दूँ।-