विशुद्ध जिजीविषा   (✍️©® अविनाश)
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सुनो पार्थ, मृत्यु अंतिम छोर नहीं!
Joined 7 November 2018


सुनो पार्थ, मृत्यु अंतिम छोर नहीं!
Joined 7 November 2018

खुद को साध कर खुशी दी हो
सुनो, उसका कभी दुख न होना,
ऊँचा उठकर भी आते हैं वापस
जमीन पर ही सारे अंततोगत्वा,
ले निवाले उसकी भूख न होना
इस सच्चाई से विमुख न होना।

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कुछ तो वश में नहीं है
कुछ वश में तो नहीं है
कुछ भी वश में नहीं है
कुछ वश में भी नहीं है
कुछ ही वश में नहीं है
कुछ वश में ही नहीं है!

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सुनो, घर-बाहर दोनों
संभाल लूंगा मैं चुटकियों में हँस कर
तुम बस इतना करना
कि मेरे मैं को शीशे सा संभाले रखना।

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कौन जाने ओस की बूंदों का माजरा क्या है
रात, सहर या जमीन, उनका आसरा क्या है।

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थोड़ा पानी थोड़ा गम पीता है
थोड़ा आज थोड़ा कल जीता है
सो जाएँ कमरे की रौशनी सारी
फिर किसी कुर्सी पर मिलता है
बड़ा खुदगर्ज होता है बाप यारों
चिथड़े कर अपना आज हँसते-२
पूरे घर का सुंदर कल सिलता है।

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मुझे अकेला देखकर
इसे अकेलापन मत समझना
ऐसे ही झूमते हैं हम
अनर्गल सोचकर मत उलझना‌।

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लाशें देखीं
और महसूस किया
क्रंदन, क्रोध और असहाय,
जंगल हो तो संभल कर चलूं
अपने ही घर-आंगन में
मारीच से साँपों का क्या उपाय।
कुछ जानें गईं
कुछ जीवन की उम्मीदें
कुछ ने खोया हर एक सहारा,
कुछ तो आये पार यहाँ
कुछ बिलखेंगे जीवन भर
लहर-लहर ढूंढ़ते किनारा।

#पहलगाम #असहाय

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सुनो चाँद
क्या तुम्हें स्मरण है
तुम्हारा सृजन!?
तुझमें जो शीतलता बसी
कभी रौशनी कभी बेबसी
कभी शक्ति कभी बेकसी
और जैसे दुधिया रौशनी में
पूरा जीवन मरण है।
कहो चाँद
तुम्हारा सृजन
क्या तुम्हें स्मरण है!?

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एक ऐसी मनोदशा, एक ऐसा मनोभाव जब मनुष्य
प्रेम के चरम का अनुभव करता है।

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लिए नासूर दर्द, ज़ख्म और बेचैनी
कहता गया कोई बिखरा सा शायर
कि होती है इश्क की नज़र बड़ी पैनी।

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