केशव, गुडाकेश, ये कैसा दौर है जो कर्म की पुकार हो और कैसी ये दौड़ है और स्वधर्म की गुहार हो चले न मन पे ज़ोर है तो व्यर्थ ना विचार करो कुछ रहा मुझे झकझोर है गांडीव को स्वीकार करो दंभ का कर्णकटु शोर है देखो, मैं सर्वत्र व्यापत हूँ फिर भी सन्नाटा हर ओर है! सहज कर्म से ही प्राप्त हूँ। केशव, मन शून्य से सराबोर है। गुडाकेश, मैं कर्म से ही प्राप्त हूँ।
मैं भयभीत जब दर्पण अतीत होश नहीं हुआ व्यतीत वो शत्रु था या कोई मीत जख्म हरा, है होता प्रतीत मैं योद्धा हूँ है लड़ना ही जीत नहीं मैं नहीं, अब होता भयभीत।