Zamir ka border
Ek series hai
Hamare un
Karmon ki
Jo hum
karte hain
Zameer ko
Maar kar
Ya amanush
Ban kar ....-
एक दौर वो था
जब सिर्फ उसे ही
पहचानते थे।
एक दौर ये है
की पूछते हैं
पहचानते हो ?— % &-
कोई किसी का
दिया नहीं खाता ।
सब नशीब का
खाते हैं अपना ।
अहसान न जता
अपने देने का ।
तू तो ज़रिया है
बस ऊपर वाले का ।
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कर्ज ।
एक जननी के दूध का कर्ज
एक धरती माँ की मिट्टी का।
एक भारत माता का कर्ज
और एक कर्ज़ है प्रकृति का।
चुका कोई सकता नही
कर्ज़दार सारे हैं ।-
औलाद का सुख ।
बच्चे के पैदा होने मात्र से नहीं
बल्कि उसके पितृ ऋण से जुड़े
संस्कारों के दायित्व को पूरा करने
पर ही प्राप्त होता है।
Usm-
रोटी की दौड़ में
और
पैसे की होड़ में
मेरा देश खो गया।
गरीब थक कर
और
अमीर पी कर सो गया।
USM
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कभी फक्र था जिन बातों पर
आज वो नासूर लगती हैं।
किसी को दोष न दे ए जिंदगी
तू दूर से ही हसीन लगती है।
Usm-
मैंने देना सीखा है
पेड़ों से पतवारों से।
मैंने बोना सीखा है
गंगा के किनारों से।
समतल ऊसर और
उपजाऊ
सभी धरातल मेरे हैं
मानो अबला नारी के
लिए संग फेरे हैं।
करती नही भेद भाव
कुछ ऐसी फितरत मेरी है।
धर्म जात बिरादरी की
दीवार बनाना
ये आदत आदम तेरी है।
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