बेटी की विदाई में बहते आँसू..
बिछोह के या खुशी के,
ये समझ नहीं आता..
बस नीर बहा जाता है स्वतः ही नैनों से
अनियंत्रित ,
और उस माँ की विडंबना देखो
जो मन भर आँसू भी नहीं बहा पाती,
क्योंकि समेटना है उसको
शादी के फैले कामों का पुलिंदा..
कई अतिथि भी हैं विदा होने को
उनके उपहार , मिठाई के डब्बे
और कृत्रिम मुस्कान चेहरे पर..
हाँ ,
पिता अवश्य सारी सामाजिकता व्यावहारिकता से दूर
खुद को किसी कोने में समेटे है..
बिटिया भी कुछ पल में ही
रखेगी कदम नए घर में,
करने शुरुआत नए जीवन की,
बचपन की चुटकी भर यादों को भीगे रुमाल में समेटे,
वहाँ, जहाँ नया परिवार पलकें बिछाये है
उसके इंतज़ार में,
सब व्यस्त हैं अब मंगल कार्य के अंतिम चरण में,
दरवाज़े से दिखता टूटा श्रीफल सामने सड़क पर
मानो समेटे सारी संवेदनाएँ खुद में ।
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