जो जबरदस्ती मेरे हर अंग को खरोंचते हैं
शरीर क्या साथ में रूह तक को नोंचते हैं
जरूरत पड़ने पे कभी काम तक नही आते
बलात्कार करने को वो मर्दानगी सोचते हैं।-
बचपन से सीखा था मर्द रोते नही
इसलिए दर्द जुबां पे ला न सका|
क्या हुआ गर दिल गम से बेजार है
मर्दानगी के अहसास से जख्मे-जिगर दिखा न सका|
लेकिन बस अब ओर नही.........
मर्द हैं तो क्या हुआ भावनाओं से अछूते तो नही,
दिल धड़कता है सीने में
तुम्हारे भी और हमारे भी वही ,
घुट-घुट के जिए तो क्या जिए
गर अश्कों में दर्द पिघल के बह जाए
तो ये ही सही |..........निशि-
जिसे तुम मेरे जिस्म पर हक कहते हो
उसे मैं तुम्हारी नाहयाद मर्दानगी का नाम देती हुँ-
कहाँ गयी तुम्हारी मर्दानगी?
तुम्हारी मर्दानगी बस औरत की
जिस्म तक है?
क्यो कभी उसके रुह को समझने
की कोशिश नही करते?
क्यो मर्दानगी यहाँ नहीं पहुँच पायेगी?
क्यो तु सिर्फ़ अकेली औरत पर अपनी
मर्दानगी दिखाते हो? दिखाना हैं
तो अपने अंदर कि इंसानियत दिखाओ?
क्यों तुम दरिंदे बन कर औरत के
आत्म-सम्मान के साथ खेलते हो?
तुम्हारा जमीर तुम्हें धितकारता नही हैं?
जब तुम ये सब करते तो कहा जाता है
तुम्हारा मजहब ? कहाँ गयी तुम्हारी मर्दानगी?-
बीड़ा उठाया है कोख ने, पीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारी जात बढ़ाने का,
नाम इज़्ज़त का मिलता भी तो कैसे, तुम्हारी छद्म मर्दानगी जमात से
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पुरुष और पुरुषार्थ की बातें वो अब क्या ही
करें जिनके हृदय में नारी हेतु सम्मान नहीं।
नारी को डराकर, दबाकर के मर्दांगी दिखाने
वाले मेरे हिसाब से तू तो इंसान ही नहीं।-
सत्य कहानी...
मर्दानगी उसने फिर दिखला दी
गई हलक दो घूंट, चुन्नी उसकी सरका दी..
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इश्क़ में खुद को लुटाना पड़ता है,
जबरजस्ती हासिल करना दीवानगी नहीं होती,
आंखों में शर्म और इज्जत होनी चाहिए,
महज़ जुल्म करना ही तो मर्दानगी नहीं होती..-
मेरी मर्दानगी काट ली जाये तो बेहतर है,
मैं अपने ही बच्चों के लिए खतरा हूँ अब।-