©अशोक पांडे
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कबीले के बच्चों में आज अलग ही उल्लास था। उन्हें एक नया खेल मिल गया था। हर कोई पैरों की ठोकर से उस गेंद को दूर उछाल रहा था। गेंद उछल कर बहुत दूर जा गिरी। बच्चे घनी झाड़ियों में गेंद खोजने लगे। उन्हें पता नहीं चला कि धीरे धीरे उनकी गिनती कम हो रही है। अचानक एक बच्चे को उसके साथियों की सर कटी लाश दिखाई पड़ी। वो अपने कबीले की ओर भागा।
उधर दूसरी ओर दूसरे कबीले में उत्सव का माहौल था। एक सर के बदले चार सर जो ले कर आये थे। बच्चे खेल में व्यस्त हो गये।-
"जिंदगी फुटबॉल⚽ की तरह है
और असफलताएं उस पर पढ़ने वाली 𝘒𝘪𝘤𝘬
जो गोल के लिए बहुत जरूरी है"-
दिल था यार, फुटबॉल नहीं थी
तुम आये और लात मार कर निकल लिये
'रोनाल्डो की औलाद' समझते हो खुद को
😏😏
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कबड्डी का टूर्नामेंट
फुटबॉल की स्टाइल में
खेला जाएगा तो
"ट्रॉफी" नहीं "टॉफी" मिलेगी।
☺️समझ लो समझो तो☺️
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आशाओं से भरा। चारों तरफ से एक जैसा।
लातों का भूत कभी
तो उंगलियों में कभी लट्टू बन चक्कर खाता।
सब खेल लेते मेरे संग।
कोई मनोरंजन के लिए तो कोई शौक से।
गोल पोस्ट में आजाऊं तो में सफलता दिला दूं।
और चूक जाऊं तो नाकारा कहलाऊं।
जब से हूं तब से बस खिलौना बना हूं।
कभी किसीने मुझसे मेरे मन की बात न पूछा।
पर मन ही मन में यही सवाल करूं,
पिचक जाऊं तो बेहतर नहीं क्या?
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फुटबॉल,व्यक्ति को,
पशु बनने का; पूरा मौका देता है...
बन गधा लात मारो
ठान बैल माथा मारो
मनचाहे शिकार का पीछा करो
धक्का दो, गिरा दो
सब चलता है...
और हाँ, यहाँ
आत्मघात
भेड़चाल चलता है....
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फुटबॉल
आज शाम को टीवी पर मॅच चल रहा था ।
कौनसे देश के बीच था उसको पता नही वहकभी खेल मे रूची रखती ही नही थी।आज जाने क्या घटा की ,टीवी के सामने बैठ गई ।
मन में बडी हलचल थी ,नजरे स्क्रीन पर टिकी थी ।हृदय पर आघात हो रहे थे , वह अपनी सोच मे मगन मॅच देख रही थी ।एक फुटबॉल ठोकरे खा रहा था ।पूरे मैदान मे लताड़ा जा रहा था ।खेल मे कितने खिलाड़ी होते यह भी पता नही उसे, उसे तो बस रिश्तेदार दिखाई दे रहे थे ।वह सबको बहला रही थी फुटबॉल बनके।ठोकर पर ठोकर खा कर उसका चेहरा भावनाशून्य था ।स्टेडियम पर शोर बहुत था ,घर पर भी सब कोलाहल भरा हुआ था ।हर ठोकर की मार पर और धड़कन बढती
किससे कितनी कब कैसे ठोकर खाई याद आ रहा था
जैसे तैसे गोल हुआ राहत हुई ।उसे लगा चलो फुटबॉल मॅच कुछ तो शांत हुआ ,पर नही मॅच मे कहा मायका और ससुराल ,फिर ठोकरे खाते हुए , दुसरे छोर जा पहुंची ।वहां से भी उसी मैदान मे फेंक दिया कि यही तुम्हारी कर्मभूमि है ।अचानक यह प्रश्न अंतस पर उठा ।
स्टेडियम का शोर , खिलाडी़ की मार ,मैदान के दो किनारे ससुराल और मायका ।वह छूना चाहती एक छोर राहत मिले , सहारा बने कोई ।बहुत फर्क होता है खेल और जीवन में, को तर्क निकलता उसके विचारो का ?
अंतस का जो द्वंद था ,कैसे प्रतिक्रिया दे हार जीत तो अलग बात है ,इतनी ठोकरे की रीढ ही टूट गई आँखों से आंसू झर रहे थे ।कोई टीम मॅच जीत चूकी थी ,किसकी पता नही ,,-
मजाक तक
चीन हॉकी, क्रिकेट, फुटबॉल जैसे खेलों में भाग क्यों नहीं लेता ,क्योंकि मिची आंक्या सू गेंदे दिखाई नहीं देती-