मेरा चेहरा तो वोही है पऱ
शायद आकर्षण पहले सा नहीं रहा अब,
ना जाने क्यूँ उसकी मुहब्बत में
वो समर्पण पहले सा नहीं रहा अब,
अब.. उम्र को मैं दोष दूँ
या फिऱ वक़्त ही शायद बदल गया
या उसकी चाह की दिशा बदल गयी
या फिऱ दर्पण पहले सा नहीं रहा अब,
बूँद-बूँद बह नीर गया
ज़िन्दगी के बहाव में...
वो.. परिवर्तन पहले सा नहीं रहा अब,
मिट्टी के घड़े थे.. टूट गये
"मैं" बर्तन पहले सा नहीं रहा अब!!-
मय्यत पर कहने आया है मोहब्बत है तुमसे
बेनाम ये बात पहले कहता तो शायद हम और जीते-
अजनबी की तरह मिली थी वह मुझसे
मुझसे मिलकर फिर अजनबी हो गई
पहले भी वह किसी और की थी
अब किसी और की हो गई-
पहले झोला नहीं.. झउआ होता था
झउआ—
जिसमें आम, महुआ ,
सूखा-हरा चारा, गेंऊठा, मिट्टी
जो चाहे भर लो....
चाहो तो
खाँची भर कविताएँ भी...
झउआ नहीं रहा अब.. पर
झोला—
मेरे कंधे पर टंगा
क्षतिपूर्ति कर रहा है...
नीचे दबी
एक-दो तुडी-मुडी कविताएँ और...
दो चार हरी सब्जियाँ भरे...
कविता
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मोहब्बत कि चोट बहुत गहरी है,
थोड़ा इसे, भर जाने तो दो..!!
कर लेंगे, हम भी, कभी शिकायत,
थोड़ा सा मोहब्बत, कम, हो जाने तो दो..!!
क्या पता, क्या मरहम होगा, इस चोट का,
पहले थोड़ा, इस मरहम को, लग जाने तो दो..!!
होंगी बातें या फिर बिछड़ जायेंगे,
पहले थोड़ा, तकरार कि बातें, हो जाने तो दो..!!-
लोग कहते है "चार दिन की ज़िंदगी है,जैसे जीना है जी लो"
पर लोग सिर्फ चार दिन का ही क्यो बोलते है ??? पाँच या छै दिन का क्यो नही ??
प्लीज (please) कैप्शन (caption) पढ़िए !!
Read the caption !!!!-