सुनो तुम्हें सुन लेता हूँ मैं
जब जब प्रीति उमड़ती है
सुनो तुम्हें सुन लेता हूँ मैं
वेदना कोई जब जगती है
तार जोड़ रखे हैं तुमसे
अटूट है वो अदृश्य भी है
सुनो प्रेम करता हूँ तुमसे
तुम बिन कोई दृश्य न है-
कुछ दूरियाँ खत्म नहीं होती,
कुछ नजदीकियाँ करीब नहीं आती,
परदेस में रहने वालों को माँ से,
अकेलापन छुपाने की तरकीब नहीं आती!-
आँसू निकले परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार-
घर से दूर रहकर
महसूस होता कि काश
मैं भी अभी रहता माँ के पास।
जब होता था जरा सा
तबियत खराब।
तो माँ जी जान लगा देती थी
पुरी रखती थी ख्याल ।
आज जब परदेश में पड़ा बीमार
कसम से माँ तेरी याद
बहुत सतायी माँ।
कि काश गर होता संभव तो
मैं कुछ क्षण आंचल में बैठकर
कर पाता कुछ विश्राम।
परदेश का जीवन
है बहुत कठोर
पर माँ वादा है तुमसे
अबके बरस जेठ में
मैं जरूर लौट आऊंगा
अपने घर की और।
©️सुकान्त सुमन-
यादों में सिमटकर जीना हैं
हर बार अपने दिल को इसी
बात पर समझाना हैं
कश्मकश ना होती
शायद इस दिल को
तो दिल का हाल उससे
भी सुनाया होगा
आसान नहीं थी राहे
मोहब्बत जान-ए-जाना
कितनी बार इस दिल
को समझाया था
हर बार टूट कर भी
ख़ुद को इस दिल
ने संभाला था-
लौट जाता हूँ जल्द ही,
पुराने शहर से बेवफ़ा बन के,
ये परदेस की नौकरी,
तलाक़ सी मालूम होती है।
-
ओ बसन्ती! पवन पागल
न जा रे न जा!
रोको कोई....
(अनुशीर्षक में)-
अपनी राहों पर चले पथिक लक्ष्य के साथ
मगर सफलता ले गई दूर पकड़ कर हाथ-