कभी जो भाव उठते हैं, प्रभू की भक्ति से प्रेरित,
करूँ अर्पित कोई रचना, तेरे गुणगान में लिखकर!
गुनाह हैं झाँकने लगते, मन के उस एक कोने से,
जहाँ महफ़ूज़ रक्खा है, गुनाहों की तिजोरी को!
सिहर उठता है अन्तर्मन, कि भय से कांप जाता हूँ,
निकल इससे नहीं पाता, कभी मैं लिख नहीं पाता!
मिटे प्रारब्ध का अंकुश, कृपा अम्बर से गर बरसे,
हृदय की वेदना कम हो, प्रभू का गीत बह निकले!
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