यूँ तो इंसानों ने बदले हैं फ़ैशन बहुत
पर मुखौटा हमेशा ही पसंदीदा रहा है-
आदमी को आदमी से लड़ाता है आदमी
फ़िर भी कभी चैन नहीं पाता है आदमी
अपनी कमजोरियों को ताक़ पर रखकर
सिर्फ़ नफ़रत ही नफ़रत फ़ैलाता है आदमी
ख़ुद से होश़ियार किसी को समझा नहीं
भले ही मूर्खता के वाण चलाता है आदमी
लाचार भले हो दो वक़्त की रोटी के लिए
मन में अच्छे पकवान पकाता है आदमी
मंज़िल को पाने की होड़ लगी है "आरिफ़"
एक चेहरे में कई चेहरे दिखाता है आदमी
ख़ुद की ज़िन्दगी भले ही "कोरा काग़ज़" हो
दूसरों को हौसले की बात समझाता है आदमी-
जब जब कभी मुझको धोखा मिला
मैं अपने ही ज़ख्मों को धोता मिला
तब जितनी भी तोहमत मुझपर लगीं
मैं उन्हीं में ख़ुद को भी खोता मिला
जिस जिस ने किया मुझको उदास
बस अपने ही सपनों में सोता मिला
जिसने भी कभी मुझे आज़माना चाहा
वो ख़ुद के सवालों पर ही रोता मिला
मोहब्बत से सब हासिल हो जाता है
तब भी हर कोई ज़हर ही बोता मिला
थोड़ा थोड़ा करके खुश़ियाँ भर जायेंगी
पर इन्सान आँसुओं के मोती पोता मिला
इश़्क की ये नहर बनायी थी "आरिफ़" नें
उसको ही बेवफ़ाई का उसमें गोता मिला
"कोरा काग़ज़" बनकर रह गयी ज़िन्दगी
हर अल्फाज़ ही उसको अधूरा होता मिला-
ख़ुद को ज़ख्म देता है तू सबकी रज़ा के लिए
ज़िन्दगी कम है क्या मिली इस सज़ा के लिए
लोग अक़्सर अपनों को धक्का दिया करते हैं
कोई नहीं ज़िन्दा सुनने तेरी इल्तिज़ा के लिए
झूठ, फ़रेब, और अना यही बचा है अब यहाँ
कोई नहीं आया नमाज़ -ए- जनाज़ा के लिए
ख़ून की बारिश हुई मज़हब के नाम पर यहाँ
कुछ नहीं होता यहाँ आती इस फिज़ा के लिए
सिर्फ़ शहर बचे हैं अब शज़र तो हम खा गये
हम क्यों हैं ज़िन्दा यूँ बची हुई ख़िज़ां के लिए
कुछ ख़बर भी है तुम्हें क्या हुआ ये ज़मानें में
ख़ुदा भी अब मजबूर है किसी मोजज़ा के लिए
ज़िन्दगी मिली हसीन थी सभी को "आरिफ़"
ज़हर ही खाया अब बची हुई ग़िज़ा के लिए
"कोरा काग़ज़" बने रहो और गुनाह में दबे रहो
कलम भी चुप रहता मिलती हुई रिज़ा के लिए-
घर-घर गया पर अब कहीं हैवानियत न रही
इंसान ख़ुश हैं क्योंकि अब इंसानियत न रही-
ज़ुल्म ही ज़ुल्म हैं यहाँ अमान कुछ नहीं
जी हुज़ूर के बिना अब इन्सान कुछ नहीं
आब-ए-रवां सी ज़िन्दगी बह रही है अब
ग़मों के तूफ़ान से बचा सामान कुछ नहीं-
इन्सान कहाँ रह गए हैं ये मुर्दार हो गए
एक-एक पैसे के लिए ये ख़्वार हो गए
ना ही नवाज़िश ना ही किसी का फ़ैज़
बेवजह ही लोग यूँ शह - सवार हो गए
उज़्र करने लगे हैं लोग अब रिफ़ाक़त से
ख़ुशियों में दूसरों की क्यों ख़ार हो गए?
इक हुजूम बना कर समझते हैं कमाल हैं
ये तो अना में यूँ शुजाअत के पार हो गए
तवक़्क़ो इनसे कभी नहीं करना 'आरिफ़'
इनके छुपे हुए राज़ सर-ए-बाज़ार हो गए-
इन्सान, तू अपनें कर्मों को पहचान
इससे पहले कुछ नहीं देगा भगवान
दूसरों की मदद् के लिए तू आगे बढ़
इससे पहले नहीं मिलेगा तुझे सम्मान
बहुत मिलेंगे तुझे लालच देने वाले "आरिफ़"
बच ले, इससे पहले वो बना दें तुझे भी हैव़ान
ज़िन्दगी बहुत अनमोल मिली है ये जान ले तू
बोल ले, इससे पहले हो जाए बड़ों का अपमान
"कोरा कागज़" ही अब रह जाएगा तू दुनिया में
नेकी कर, इससे पहले लिख जायें गुनाह तमाम।-
लड़कियों पर आँखें जमाकर क्या होगा
बेव़जह अपनी ज़ात दिखाकर क्या होगा
मोहब्बत को जो तुमने ठुकराया है अभी
ज़िन्दगी भर फ़िर साथ निभाकर क्या होगा
गर कभी समझे नहीं रदीफ़ उसके हुस्न के
तो अब उसपर क़ाफिये सजाकर क्या होगा
उसके चलने पर भी एतराज़ रहा "आरिफ़"
अब उसके लिए फूल बिछाकर क्या होगा
मोहब्बत कोई अब भीख़ नहीं जो दे दे वो
फ़िर अपना दामन आगे बढ़ाकर क्या होगा
कौन तुम्हें समझाए और अपने मुँह की खाए
हैव़ानों को अब इक इन्सान बनाकर क्या होगा
"कोरा काग़ज़" थी जिसको जलाया है तुमनें
आँसुओं को उसके स्याही में गिराकर क्या होगा-
तवक़्क़ो न करना किसी इन्सान से
मिल जाता है सब कुछ भगवान से
माज़रत चाहता हूँ तुझसे 'आरिफ़'
कुछ नहीं होगा ऐसी झूठी शान से-