ग़ज़ल मोहब्बत पहल मोहब्बत
गुलों सी खिलती कमल मोहब्बत
हुई वफ़ा इक किताब दिल की
तभी से उसकी रेहल मोहब्बत
अमान इसकी किया करो तुम
ख़ुशी का ऐसा अमल मोहब्बत
तलाश दिल की रुके यहीं पर
वफ़ा का बनती महल मोहब्बत
सुकून 'आरिफ़' मिलेगा दिल को
अना से मत फिर बदल मोहब्बत-
ज़िन्दगी में आँसुओं का ग़म नहीं
मौत को क्या रास आए हम नहीं
चल सको तो चल ही देना साथ में
इश्क़ में तो मंजिलें भी कम नहीं
वाक़िआ मैं क्या सुनाऊँ इश्क़ का
रो रहा हूँ आँख भी अब नम नहीं
बद-नसीबी कह रही है सुन भी लो
क्या दुआओं में ज़रा सा दम नहीं
शहर 'आरिफ़' का नहीं है इस तरफ़
हम-सफ़र क्या बस वही है तुम नहीं-
दर्द होगा सह लूँगा हँसते-हँसते
कुछ न कुछ तो कह लूँगा हँसते-हँसते
छोड़कर तुम जाओगे, जाओ-जाओ
बिन तुम्हारे रह लूँगा हँसते-हँसते
याद आई कल मुझको गर तुम्हारी
आँख भर कर बह लूँगा हँसते-हँसते
इश्क़ करके तुम मुझसे दूर जाना
कतरा-कतरा ढह लूँगा हँसते-हँसते-
कभी किसी से वफ़ा करूँ मैं
ये ख़ूबसूरत नशा करूँ मैं
मुझे नज़र में कभी बसाओ
तुम्हारे दिल में रहा करूँ मैं
तुझे जो देखा ख़ुदा को देखा
नमाज़ तेरी अदा करूँ मैं
मुझे नज़र से उतार देना
वफ़ा से जब भी दग़ा करूँ मैं
तेरा है 'आरिफ़' तेरा रहेगा
तुझे ही ख़ुद में भरा करूँ मैं-
हक़ीक़त कहो या फ़साना कहो तुम
कभी तो मुझे भी दीवाना कहो तुम
तुम्हारे ख़यालों से बाहर न निकला
इसी टूटे दिल को घराना कहो तुम
मैं घुट घुट के जीता रहा हूँ अकेला
मोहब्बत का कोई तराना कहो तुम
जो तस्वीर दिल में बनी है तुम्हारी
अक़ीदत का उसको पैमाना कहो तुम
मशिय्यत है मुझको मिलो तुम ही आख़िर
मुझे चाहे फिर भी पुराना कहो तुम
मैं 'आरिफ़' हुआ हूँ पढ़ी जब मोहब्बत
अकेला कहो या ज़माना कहो तुम-
कुछ और दर्द दे दो इस बार ज़िन्दगी को
मिलती नहीं मोहब्बत अब यार ज़िन्दगी को
किससे करूँ शिकायत किस पर करूँ भरोसा
भाता नहीं है कोई घर बार ज़िन्दगी को
अपने हुए पराये उसका नहीं है शिकवा
अपनों से ही मिले हैं आज़ार ज़िन्दगी को
कल साथ थे हमारे हम पर फ़िदा था सब कुछ
अब वो दिखा रहे हैं किरदार ज़िन्दगी को
'आरिफ़' हुआ अकेला ख़ुद की ही जान से अब
करता रहेगा अब वो अख़बार ज़िन्दगी को-
दुखी है वो अब मुस्कुराए भी कैसे
ये आँसू किसी को दिखाए भी कैसे
मुक़द्दस नहीं है मोहब्बत किसी को
वो सपने सुहाने सजाए भी कैसे
गुज़ारिश करे किस के पीछे पड़े
ख़ुदा को वो अर्ज़ी लगाए भी कैसे
ये इमरोज़ आकर बना है दीवाना
गुज़ारे पलों को भुलाए भी कैसे
मुकम्मल कहानी हुई ही कहाँ थी
अधूरी कहानी सुनाए भी कैसे
हसीनों की आदत से पुरनूर होकर
हसीनो को दिल में बिठाए भी कैसे
जो 'आरिफ़' का होकर भी उसका नहीं है
उसे पास अब वो बुलाए भी कैसे-
वो मरासिम वो ज़माना याद है
क्या तुझे अपना घराना याद है
खेलते थे जीतते थे साथ हम
आज क्यों आख़िर हराना याद है
इक इनायत थी हमारी दोस्ती
हाँ मुझे तेरा डराना याद है
चोट लगती थी मुझे जब भी कहीं
रोते-रोते वो हँसाना याद है
भूल 'आरिफ़' से हुई क्या बोल फिर
साथ में गाया तराना याद है-