मेहकशो की आदत हैं वो बहक जाते हैं।
खुद ही हवा में अपना मसनद सजाते हैं।
आशिक़ो की भी होती है मकसूस सी फ़ितरत
किया जो इश्क़ एक बार, भूल न पाते हैं।
और आलिम हैं जो फिर इन सबसे जुदा हैं,
ये जहां के हर किस्म की ज़हमत उठाते हैं।
उन सियासी लोगों की तो बात ही न पूछो,
आँसूओं की तीलीयों से वो आग लगाते हैं।
"ज़लज़ला" फिर है किसी दर्ज-ए-अवाम में,
कौम जो बस बन के बुत ये देखे जाते हैं।
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