QUOTES ON #SONIBROSSR

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19 MAY 2018 AT 21:46

याद नहीं आता, कब आख़िरी बार,
स्वछंद नभ में, पुच्छल तारों को ढूंढा हो।

देखने को कोशिश की हो, मंदाकिनियों को,
निहारा हो, टिमटिमाते तारों को।

दिल खोल कर बात की हो, प्रकृति से,
कल्पवृक्ष से, उसकी ठंडी छांव में बैठ,
पूछा हो, कितनी सहनशील हो तुम।

देखा हो, अपनी ही दुनिया में मस्त,
उछलती-कूदती गिलहरियों को,
मूंगफलियों को इकट्ठा करते।

सोचा हो, क्यों न हाल पूछ लूँ,
उस कमरे में अकेली, बैठी अम्मा का।

इजहार करूँ, मेरे परिवार वालों से,
मेरे दिल में सम्मित, अगाध प्रेम का।

और न जाने कितनी ही, असंख्य बातें है,
जो फ़िर से, जीना चाहता हूँ!

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1 MAY 2018 AT 22:11

There is no Honour in Killing!!!

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16 MAY 2018 AT 15:52

लाखों दर्द छुपे हैं...
इस मुस्कान के पीछे!
(कविता अनुशीर्षक में)

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24 MAY 2018 AT 14:54


ये जो भिगो भिगोकर,
शब्दों को चाशनी में घोल,
बड़ी नज़ाकत और नफ़ासत से,
एक ही झटके में, दे मारती हो,
और पूछने पर, ऐसा बयां करती हो,
मानो कुछ किया ही नहीं,
वो मासूमियत से भरी,
छुरी सी तीखी, बातें,
और उन बातों में, डूबा मैं,
लगता जैसे, अब ले ही लो,
जान मेरी, रक्खा ही क्या है,
तुम्हें देख लेने के बाद,
भले ही, झूठा ही सही,
कह तो दो, कि फिक्र है,
तुम्हें मेरी! 💖

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8 JUN 2018 AT 9:13

भीगा तन, बिखरे काले कुन्तल...
झटकारती केश, लयबद्ध मदमस्त झूम...
चूम-चूम आते... कमर...
चहुँ ओर, जलवृष्टि-सम-मेघ सी...
मानो, कमल में, बूंदें ओस की...

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10 JUN 2018 AT 9:10

चिथड़े वसन, लहूलुहान तन...
शिखरस्थ होने, लालायित मन...
खड़ा दोराह में, करने चयन...
चुनूँ? पथ जिसमें, सब करते गमन...
या चुनूँ? निर्जन-पथ, पतझड़-सम...
उधेड़बुन-उलझन में मन,
हो शांतचित्त, करता मनन,
क्या? सर्वदा सत्य ही हो, जनमानस चेतन!
इन्हीं पूर्वाग्रहों का, करने खंडन,
निकल पड़ा, कर दंडवत नमन!

लगा चलने, अतिशय ही मार्ग निर्जन,
बाधाएं असंख्य, दृढ़तापूर्वक करता दमन,
आखिर मिल ही गया, वो पावन उपवन,
हर्षित मन, बहती हवा सन-सन,
प्रकृति मुस्काई, खिल उठे चमन,
स्वागत करने को, राहीगर प्रथम!
पतझड़-पल्लव, हो उठे चमन,
पुष्पवर्षा हुई, आल्हादित हो उठा गगन!
यही सफलता का नियम प्रथम,
सूझ-बूझ व आत्मविश्वास से, करें मार्ग चयन।

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19 MAY 2018 AT 20:13

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INGNOW

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18 JUN 2018 AT 21:16

ख़ुशनुमा यादें... बचपन की!
खुशियां... मानो थी झोली में भरी...
वो खेल, खिलौने, गुड्डे-गुड़िया...
वो दिन भर मस्ती... मुंडेर पे बैठी चिड़िया...
हंसना-गाना, उधम मचाना... घर भर शोर मचाना...

आज भी याद दिलाते हैं... कितना बदल गया वक़्त...
जीवन की सच्चाई से रूबरू होते-होते, हो गया सख्त...
इतना सख्त... की अब कुछ भी महसूस नहीं होता...
वो मुंडेर पे चिड़िया अब भी बैठी है...
दिल में बचपन अब भी है, निश्छल-अनछुआ सा...
तैयार... तोड़ने को सारे बंधन...
जीने को आतुर... वही प्यारा बचपन!

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13 JUN 2018 AT 14:14

ये जो यूँ ही... रूठ जाती हो,
वो जो तीख़ी खंज़र सी... दिल जलाती हो,
किस तरह इजहार करूँ तुम्हें?
इसी अदा से मुझे... तुम कितना भाती हो!

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13 MAY 2018 AT 10:08

The only purpose of recent education is,
To make person ignorant.

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