और इक शाम मेरी मुस्कुराहट में बरकत हुई
जब मिलने को पूछा और जवाब में हरक़त हुई
इस दफा न गाड़ी न चौराहा न रास्ता था कोई
सीधे उसकी चौखट पर मेरी दस्तक हुई
मां जैसी वो संग मां के बैठी
मुझे देख कमरे को रुखसत हुई
उस कमरे में बैठा मै और चेहरा भी याद नहीं
देखो इन नज़रों की इतनी न हिम्मत हुई
मैने तहज़ीब बनाए रखी यूं तो उसे
सीने से लगाने की बड़ी हसरत हुई
वो आई दरवाज़े तक जब मैं जाने लगा
मेरी रवानगी से मुझे ही आफ़त हुई
....
तारीखों की गुल्लक में एक और तारीख़ डली
गिनके चार मुलाकातें हुई जबसे मोहब्बत हुई
-