लिखती इसलिए हूँ,
कि तुझे खुद में जिंदा रख सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि तुझमें खुद को जिंदा रख सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि बस खुद को किसी तरह जिंदा रख सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि अपने बिखरे सारे रिश्तों को समेट सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि सारी बिखरी हुई यादों को समेट सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि खुद को बिखरने से बचा सकूँ,
तो कभी इसलिए
कि खुद को तलाश कर सकूँ।
वजह तो हज़ार हैं, मेरे लिखने की,
मगर लिखूँ भी तो कितना और किस तरह,
कि कभी अल्फ़ाज़ मिलते नहीं,
तो कभी अल्फ़ाज़ सिमटते नहीं,
तो कभी जज़्बात इन पन्नों पर उतरते नहीं।
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