ज़िन्दगी तब खुशहाल थी,
जब पिता के जेबों से, माँ पैसे दिया करती थी।
दिनभर मेहनत करने के बाद,
पिता के घर लौटने से, घर जगमगा उठता था।
ज़िन्दगी तब खुशहाल थी,
जब रात का भोजन माँ और पिता के साथ होता था।
कुछ गुफ्तगू करते हुए, पिता से अपनी बात मनवा लेना।
न मानने पर भी, माँ का सहारा लेना।
ज़िन्दगी तब खुशहाल थी,
जब पिता ज़िद को पूरा करते हुए, अपने को सन्तुष्ट कराते।
हर पल उनके न होने का एहसास, आज भी खलता है।
सच कहूँ तो, मैंने पिता जैसा अमीर इन्सान और माँ जैसा दिल कहीं नहीं देखा।
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