लिबास हो आख़िरी इस उम्मीद से परवरदिगार, मैं मक्सद-ए-हयात पूरा किये जा रही, कि वो वस्ल ही क्या जो तुझसे ना हुआ, मैं ज़ख्म-ओ-सब्र के घूँट शरबतों मानिंद पिये जा रही।
ग़म की कमी महसूस ना हो इस फ़रेबी से दिल को तो ग़ैरों के अश्कों से अपनी आँखें नम कर लेती हूँ, ज़हमत नहीं उठाती नीलाम हो चुके शौक रखने की बस होश में रहने के लिये नशा कर लेती हूँ।