मसला यह था कि...
ना मोहब्बत की इबादत पूरी हुई,
ना ख़्वाहिशों की दुआ क़बूल हुई,
तस्बीह में पढ़ते रहे जिन्हें रात-दिन,
तक़दीर में उनका नाम तब्दीली हुई,
इतनी दूर सफ़र में निकले ढूँढने,
हर उस शख़्स से लगे पता पूछने,
खो गये उस अंजान शहर में मुसाफ़िर,
उम्मीदों की कश्ती लगी धीरे-धीरे डूबने,
शम्मा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा बुझ चुका था,
हर वो सम्भाले ख़त को राख कर चुका था,
रंज-ओ-ग़म में साहिल पर लिखता बेज़ुबान शायर,
ज़िंदगी जीने का रास्ता-वास्ता तोड़ चुका था...
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