" मज़दूर...... "
रोटी की जंग में ख़ुद को हार रहा हूँ,
मैं मज़दूर हूँ साहब,
क्या इसी की सज़ा अब काट रहा हूँ,
थोड़े से चावल दाल में परिवार पाल रहा हूँ,
घंटों धूप में ख़ून अपना,
सिर्फ़ जीने भर के लिए उबाल रहा हूँ,
दुनिया तो रुक गई सबकों ये बता रहा हूँ,
भूख के शहर हर रोज़ मगर,
मैं उम्मीद में मीलों चलता जा रहा हूँ,
मैं वाकई क्या किसी को नज़र आ रहा हूँ,
सब बोल तो रहे है हफ़्तों से,
जहाँ हो वहाँ ठहरो "मैं" आ रहा हूँ,
रोने की आदत है मुझें ये भी मान रहा हूँ,
पर राशन की लाइनों में भी,
वो कहते हैं रुको, "मैं" पहचान रहा हूँ,
मैं आपकी बातों से अपनी हालात जान रहा हूँ,
साँसे उखड़ने लगी अब मेरी भी,
आज तीसरा दिन हैं अब तो सिर्फ़ पानी माँग रहा हूँ,
रोटी की जंग में ख़ुद को हार रहा हूँ,
मैं मजदूर हूँ साहब,
क्या इसी की सज़ा अब काट रहा हूँ....!!
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