तेरी मोहब्बत का बस मैं हक़दार हो जाऊं
तू बन जा शायरी मेरी मैं तेरा गुलज़ार हो जाऊं..|-
दशत ओ सहरा में बिखरता गया जो
हर दिन वो हम तेरा ख्वाब देखते रहे.
ढलती शाम में जहाँ बिछड़े थे हम
हर दिन वो ढलती शाम देखते रहे.
बज़्म'में मुनासिब समझा मुकर जाना.
रोज जुबां का झूठा एतबार देखते रहे.
बहुत आबा झाही थी ज़नाज़े पे उसके.
ज़िन्दा जो शख्स सबकी राह देखते रहे.
मेरे बश में नहीं था डूब के जाना माझी
किनारे पे बैठ पानी का बहाव देखते रहे.
अब्र सब्र खबर एक दीये की तीली बालिद
हाथों पे रख अंगार जलती कब्र देखते रहे.
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अब वो कलम भी बंध चुका है एक दायरो में...,
तनिक "हाँ" तनिक "ना" के दायरों में...,
कोई पुनविराम लगाता है तो कोई प्रसनवाचक चिंह?..,
अपनी खुली आजादियां तो वो जैसे भूल ही गया,
वो इंक में डुबोकर गहरे जज़्बात को लिखना,
खुद के दर्द पर मरहम पट्टी करना..,
दुनिया को एक राह दिखाना,
अब दुनिया तम्हारे सुजाए रास्तो पर सवाल कर देगी,
लेखिकि जो समाज का एक "आईना" हैं..उसे धुन्दला घोसित कर देगी,
डर हैं उसे अब खुल कर अपने विचार लिखने में,
अब कुछ लिखेगी भी तो फोन की एक लेखिकि सूत्र पर,
अब कहाँ इन हाथो को फुर्सत हैं कागज और कलम से लिखने की,
अब एक "नौजवान" कहता है अपनी "माँ"(लेखिकि) से की तुम क्या हो?, बस लोग पढ़ कर भूल जाते है,
कोई अमल नही करता,
कोई खुद में नही अपनाता,
अब कोई चादर से पॉव नही ढकता,
अब तुम्हारा वजूद खत्म सा हो गया हैं,
अब नही "कबीर", अब नही "हरिवंश राय बच्चन",
अब नही "प्रेमचंद", अब नही "गुलज़ार साहब..,
ढ़ह गया "कविता" का दुनिया,
मलाल इसी बात का तो रहा है... 😐की कविता लिखते लेखक होते हुए भी ढ़ह गया कविता का दुनिया!!
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अमीर अपनी कामयाबी के किस्से
और काली कमायी को गिन रहे थे.
साथ में बैठा फकीर अपने हिस्से की
रोटी किसी भूखे को देके चला गया.
खुदा के घर का मजहबी नहीं था वो
तभी आँखों में खुशी देके चला गया.
गिर चुके है खुदा की नज़रों से वो लोग
वो परिंदा पिंजरे में जां देके चला गया.
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Apni muskaan ko kisi ajnaabee ke liye khona mat,
Uss bewafaa ke liye tum kabhi rona mat....
Apni maa ki khushi ke khatir hi jee lena yaaro,
Magar khuda ke vaste uss dhokebazz ke liye tum kabhi marna mat....
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मेरी सुबह की टहल में,
एक अलग सा सुकून है ।
बादलों की आस्तीन से
जब धूप झाँकती है
खेलती है सतोलिया
कुछ टूटे बिखरे टुकड़ो संग ।
मैं चल के पहुँचता हूँ
दरख्तों के आसेब में
जहाँ मेरी परछाई
मुझ से ज़्यादा खुशनुमा है ।।
(क्रमश:)-
तेरी ग़ज़लों में छुपा हुआ इक़ राज़ हूं मैं
वैसे तो ना तेरा हमराही ना हमसफ़र हूं मैं
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यू तो बंद कर दिए हैं हमने सभी दरवाजे इश्क़ के पर तेरी एक याद है जो दरारों से भी आ जाया करती है..
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बड़ा सा चाँद झाँक रहा था
रसोई वाली खिड़की से
उसे तोड़ दूध में डाल कर मैं पी गया।
इतनी रात गए खाना कौन ही बनाता है?
माँ ने सिखाया था —
जब भी खाना बनाने की हिम्मत ना हो
तब दूध रोटी खा लेना।-
क्या होता है दर्द-ए-दिल..तुम इक पल में जान जाओगे
पढ़कर देखो मेरी ग़ज़लें..तुम गुलज़ार को भूल जाओगे-