कहना था तुमसे मगर कुछ कह नहीं पाया,
जिक्र ए मोहब्बत मैं तुमसे कर नहीं पाया।
तुम हया फरमाती रही आंखों से इश्क़ की,
और मैं हाल-ए-दिल कभी कह नहीं पाया।
तुम जान गई थी मेरे नादां दिल की धड़कनें,
और मैं तुम्हारी मोहब्बत समझ नहीं पाया।
दिन महीने साल बीते जैसे मौज ए दरिया,
सावन में लगी वो आग मैं बुझा नहीं पाया।
नींदे सो गई पर रात जगती रही आंखों में,
पिछले कुछ महीनों से मैं रो भी नहीं पाया।
लम्हों के मयखाने में तुझे याद कर के मैं,
खुद को तनहा होते कभी रोक नहीं पाया।
क्या फायदा किसी और से कु़र्बत होने का,
जब पास रहकर भी तुझे जान नहीं पाया।
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