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हर नज़्ज़ारा डूब रहा है,
आँखों में इतना पानी है,
मौत ही केवल सच्चाई है,
ये जीना नौहा-ख़्वानी है,
जाने वालों ने ज़िद कर के,
बात न कोई भी मानी है,
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यूँ तो ज़िन्दगी में अहबाब हमने खोये बहोत
अब आरज़ू है के मरने पे ज़माना रोये बहोत।।-
जो ढक पाती ये पूरा तन वो चादर मिलना मुश्किल थी
सो ख़ुद पर डालकर मिट्टी, ज़मीं में सो गए हैं हम-
में मौत लेके आऊंगी
तुम वक़्त लेते आना,
सुनाऊंगी हम दोनों की कहानी
तुम वो दास्तां लिखना,
वो पहली मुलाक़ात की बातें
रात भर बातों में किए हुए वादे
याद है ना तुम्हे ?
कभी कुछ नहीं चाहा
कुछ चाहिए तो
सिर्फ तुम्हारा तवजू,
क्या हूं में इतनी बुरी
के अब नज़र तक नहीं मिलाते
बातों बातों में मेरी नाम नहीं पुकारते,
दुआ है रहो तुम अवाद
और में बरबाद
याद करना कुछ लम्हें
लिखना कुछ कविताएं
पढ़ना तुम मेरे लिए
शुनशान किसी जगह पे,
होगी हमारी आखरी मुलाक़ात
करना तुम कुछ बातें
में भी करूंगी कुछ शिकायतें
में मौत लेके आऊंगी
तुम वक़्त लेते आना ।।
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जब घर काफ़ी पुराना हो जाता है
दीवारों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं
खिड़कियों से अंधेरे झाँकते रहते हैं
दरवाज़े बंद नहीं होते
सबकुछ मौन रहता है
तब...
उसके अंदर जो रहता है
अंततः सोचता है
अब ये घर छोड़ देना चाहिए...
कुछ ऐसे ही उम्र गुज़रने के बाद
होता है आत्मा और शरीर का वियोग।-
मौत के दिन,
ये क्या इत्तेफाक हो रहा है।
ये गांव और शहर,
क्यों वीरान लग रहा है?
......
अंधेरा दिल में था,
तो ये शहर क्यों?
'अंधकार में जल रहा है।'
मैं तो तिनका था न,
जो आज मिट रहा है।
फ़िर पर्वतों का ये अहंकार,
क्यों मर रहा है?
......
हां! मैं वापस नहीं आहुुंगा,
पर पर्वतों को अहंकार आ जाएगा।
पर जल के रोशन करूंगा,
जिन चेहरों को,
उनमें भी तो स्वाभिमान आ जाएगा।-
खूब ही मुझे पिलाई जा रही है
यूं कश-प-कश लगाई जा रही है
ये कौन चल बसा है अंदर मेरे
किसकी चिता जलाई जा रही है
- सुप्रिया मिश्रा-