उफ्फ ये जात.....
बना एक माटी से तू भी मैं भी
रगों में बहता हुआ लहू का
रंग भी एक ही....
धड़कता है दिल तेरे सीने में
मेरे सीने में भी....
जो धूप है तेरे सर पर
कभी हुईं छांव मुझ पर भी
दिखता है एक सूरज आसमां में
ढलती है एक जैसी शाम भी...
नहीं हैं फ़र्क कहीं भी
तो ये फ़र्क कहां से आ गया
प्यार से भरा हुआ दिल था
जात के नाम पर मात खा गया....
सदियां गुज़र गईं इस खाई को भरने में
देखा जब अपने ही घर में
एक दरक नज़र आ गई
ना दिखी काबिलियत उसकी
उफ़ ये जात उसका जैसे वजूद
ही मिटा गई....
ना जानें कौन से नए विचारों
नए जमाने की बात करते है
कहूं क्या में उस सोच को
जो जात के नाम पर
इंसानियत को परखते है....
जात के नाम मिलती चोट
अब नासूर बनती जा रही....
अमन, चैन, सुकून, मोहब्बत
सब सूली चढ़ती जा रही....
कब थमेगा ये मंज़र
ना जानें कब वो सुबह आएगी
कब दिल से गुबार खत्म होगा
कब ये अदृश्य दीवार ढाएगी
जवाब पास हो कर भी
सवालों को गुमराह कर दिया
हम पर तो नहीं गुजरी इसी सोच ने
हर एक इंसा के बीच दरार कर दिया...✍️
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