चिंतन करते-करते रूप ,
गए कई दिन बीत ;
ना तो हाथ लगा कोई रस,
और ना तो कोई गीत !!— % &चिंतन ही एकमात्र सहारा ,
चिंतन ही कवि की रीत ;
बिना हाथ में लिए मदिरा ,
क्या बना कभी कोई संगीत !?— % &एक ओर तो बसे मुरारी,
लिए हृदय में प्रीत ।
और हृदय मध्य तो तुम हो रूप,
मेरी इकलौती मीत !!— % &ऋतु चाहे हो उष्ण ,
या फिर हो ऋतु शीत ;
रूप मुझे यदि मिले पराजय ,
फिर भी मिले तुम्हें जीत !!— % &
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