बाल-यौन शोषण :- " एक सामाजिक दुराचार "
क्यों!! सेहमी हुई हैं ये बचपन , एक अंधेरे के कोने में ..
याद आती है वो काली रात , हर एक पल के सोने में ..
लाड करने के बहाने , मेरी मासूमियत को निगल गए ..
जिस्म तो किये तार तार तूने , पर मेरी आत्मा को भी कुचल गए ..
मिटा के अपनी हवस की आग , खून में लिपटा छोड़ गए ..
प्यार से सिंची गई मेैं मासूमियत की कली , रौंदकर तुम तो चले गए ..
दे गए ये काली याद , जीवन के हर भरोसे का विनाश कर ..
प्रज्वलित रहेगी ये नफरत की अग्नि , हर जख्मों को बर्दाश्त कर ..
डर लग रहा है अब मानो , किसी अपने के भी दिए प्यार से ..
रोम-रोम तप पड़ते हैं मेरे , उस विश्वास-घाती दुलार से ..
दब रही है मेरी आवाज , इस जहां के बेतुके सवालों से ..
जाने क्यों!! हो गई पराई मैं , इस समाज के बढ़ते फासलों से ..
नहीं हैं ये मेरी खुद की कहानी , ये कहानी पूरे समाज की हैं ..
हैवानियत में लिपटे हैं कुछ इंसानी चेहरे , ये घटना पूरे समाज की हैं ..
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