त्यौहारों का सिलसिला जारी हैं जब से,
इंतजार एक-दूजे का हमें भी हैं तब से।
होली से दिवाली फ़िर दिवाली से होली,
और बीच के समय में करते आँख-मिचौली।
हर शख्स की अपनी राह होती हैं हुजूर,
कोई होता नहीं हैं, अपनों से बेवज़ह ही दूर।
मैं सोचता रहा हूँ- यह-वह, अगर-मगर,
उन्होंने हमें बनाया हैं अपना हिस्सा-ए-घर।
हर पल, हर वक्त सिर्फ़ उन्हीं में रहा हूँ मैं,
फिर भी वो पूछते नहीं थकते, कि कहाँ हूँ मैं?
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