(आँगन)
सांस नाश में बिकने लगी,
न रहे कला के कदरदान।
आंगन को जीवित जला के,
मूर्ख ख़ुशियाँ ढूँढे इंसान।।
समां बुझी परवाना बुझा,
जल गया समस्त जहांन।
अपनो को सम्भव पूर्ण मिले,
मिटे जीवन्त सोच बलवान।।
फ़ैसन-घमंड पला पैसों में,
हुआ सादा मिट्टयाँ-मैदान।
मन्दिर में रब सब ढूँढे है,
क्यूँ खुद रब ढूँढे इंसान।।
मन-बंटवारा खुशियाँ बांटे,
अगर समझ सके तो जान।
दिक्षा का दम तब घुट गया,
जब घर-घर बना प्रधान।।
🌹महेश कुमार🌹
-