एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
- धूमिल-
आज फिर हवा का रुख बदलते देखा
आँखो में नया प्रतिशोध पलते देखा,
दबी देखी निशानियाँ हमने अपनों की
बहते आँसुओं से चिंगारी निकलते देखा,
दिल और आग हो गया जब हमने
धुंए में शहर-ओ-शहर मिलते देखा,
कसूर कोई नहीं था मासूमों का लेकिन
बलि आतंकवाद की उनको चढ़ते देखा,
आज फिर उस राख से धुआँ उठता है
खुशियां थी जहां चिताएं भी जलते देखा,
कर लेते हैं लोग मौत पर भी राजनीति
यहां बाद तबाही के हाथ मलते देखा,
वो ज़हर बो रहे हैं और ज़हर ही काटेंगे
देखा जब भी उनको ईमान बदलते देखा !-
वह
गंगा किनारे
कपड़े धो रही है..
मन ही मन
सफ़ेदपोशों कि
काली करतूतों पर
रो रही है...
वस्त्रों पर साबुन लगाती
पत्थर पर पछीटती
कभी हाथों से मसलती
कभी इकठ्ठा कर घूँसे बरसाती
तो कभी पानी में खंगालती...
नहीं निकाल पा रही है
कपड़ों की धवलता में
छुपी मलिनता को..
सफ़ेदपोशी
भीतर तक काली है..-
कैसे आदमी को आदमी से सताया जाए?
चलो खाल ओढ़ कर भेड़ों में रहा जाए।
अपराध कम है के, कैसे जेलों को भरा जाए?
चलो थोड़ा देश में अराजकता बढ़ायी जाए।
कैसे हकीमों की नेकी का बंदोबस्त किया जाए?
फैला दो मर्ज इतने,के कोई ना बचने पाए।
कैसे आला अफसरों की जेबें भरी जाएं?
चलो फाइलों को थोड़ी धूल चटाई जाए।
मसले बढ़ गए है देश में, कैसे ध्यान भटकाया जाए?
चलो पत्रकारिता को थोड़ा, पैसों से तौला जाए।
बढ़ती बेरोजगारी को कैसे कम किया जाए?
देकर मुफ़्त इंटरनेट योजना, इनको व्यस्त किया जाए।-
हमारी ओर से, कोई गवाही नहीं देता
और चिल्लाना भी हमारा, सुनाई नहीं देता
तोड़ मरोड़ कर, संतोष ढूंढ रही है दुनिया
क्या कुछ भी यहां, दिखाई नहीं देता
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए
सुना तो था, अपने हाथों में अपनी तकदीर है
जाने क्यों फिर, पैर थामे, अपनी सी ज़ंजीर है
थाली में अपनी, झांक कर तो देखो
वादों के फाके हैं, आँखों का नीर है
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए
आपस में, लड़ते रहे हम, ज़माने के लिए
वो आए ही कहाँ, कुछ बताने के लिए
कुछ पलों के लिए तो, खुलती है आँखें अपनी
हम जागते भी हैं मगर, फिर सो जाने के लिए
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए-
गिरगिट बैठे सिंहासन पर
गधे लगाते तेल !
बीन बजाते बाज महोदय
मगर चलाते रेल !
ये देखो कुदरत का खेल...-