मेरी चराई हुई बकरियों के बच्चे...
मुझसे मांग रहे हैं...
हिसाब, उन चरागाहों का
जहाँ विचरते थे, उनके बाप-दादा
और,,,, मैं
नि:शब्द हो
देख रहा हूँ
एक शहर...
जिसके खुरों ने रौंद दिये है...
मेरे पहाड़,,,,
मेरे जंगल,,,
जो पी गया है, पानी
मेरी नदी का
जो लीलता जा रहा है....
मेरा अल्हड़पन...
मेरा बचपन...
और,,,,,,मैं
फिर भी....
उसकी चकाचौंध से....
आकृष्ट हो....
होता जा रहा हूँ
शहर....||-
आसान नहीं पहाड़ों सा,ऊँचा उठकर अर्श को चूमना,
हुनर मिट्टी को मिट्टी से लिपटे रहने का आता नहीं....
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पीछा छुड़ा कर पहाड़ से भागी इक नदिया
फिर सोहबत में तालाब की पानी सड़ा दिया।-
प्रकृति शांत लय में बोलती है,
एक कालातीत गीत, समय से परे..
यदि आप सुनें, स्थिर और सत्य से,
धरती आपसे अपना प्रेम कहेगी..-
हर अच्छे दिन की शुरुआत बार बार करता रहा
बिगड़ी हालात को संवारता रहा
फटे हुए बादल से आयी बरखा बहार
पहाड़ की छाती से निकाल आया वृष्टि बहार
बह गए सब खुशियों का मंजर
गुम हो गई कोयल की कू- कू
प्राचीन में बसा धरोहर देख देख पाता हूं
बिगड़ी हालात.....
टूटे हुए सपनों की कौन लिखेगा कहानिया
अंतर मन की व्यथा कौन सोनेगा
हार कहा माना राह कंहा छोड़ा
नए रूप कोशिश करता रहा बार बार
हर अच्छे दिन की शुरुआत बार बार करता रहा।।
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पहाड़ों के बीच से
अपना रास्ता निकाली हूं मैं
नदियों से मिलकर अपना
नया सफर ढूंढी हूं मैं
हां मैं वो पवित्र जल हूं
जो सबके जीवन का
अहम हिस्सा बनी हूं मैं
हंसते मुस्कुराते नदियों से घुल कर
अपनी मंजिल तलाश रही हूं मै
धीरे धीरे आगे बढ़ते चली जा रही हूं मैं
कुछ वक़्त का फासला है
फ़िर सागर से संगम करूंगी मैं
हां मैं वो पवित्र जल हूं
जो अब सागर से मिल कर
अब उसकी होने वाली हूं मैं
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आज बारिश से पहाड़ों पर हरियाली आई है लोग खुश हैं,
कल वो हिस्सा सूख जायेगा, लोग उसे बेजान कहने लगेंगे!
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कलम की नोंक पर भी, तुम्हें रख लेती हूँ,,,,!
तेरे पहाड़ जैसे दिल की भी, मुझे रखने की औकात नही थी,,,!
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