सुबह सुबह पवन के फोन से आंखें खुली। एक एक शब्द सुलगता सा महसूस हुआ। सुबह की फ्लाइट से जाने की खबर ने, जैसे गर्मी को और भी गर्म कर दिया। 8.30 पर निकलने वाली फ्लाइट, अब कहा पहुंची होगी?
सिर्फ अनुमान ही लगा सकता हूँ। तुम अब शहर से मीलों दूर निकल चुकी होगी। मुझसे दूर बहुत दूर, मेरी कल्पनाओं में अलग अलग चित्र तैर रहे हैं। तुम यहाँ होगी, तुम वहां होगी। सिर्फ कल्पना के रंगों से तुम्हारी तस्वीर बना सकता हूँ। जो भी हुआ अच्छा या बुरा नहीं जानता। लेकिन तुम्हारे जाने के साथ ही तुमसे दूर होने का डर हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। अब बिछड़ने के ख़ौफ़ से आज़ाद हूँ मैं। जाओ खुश रहो।
सिद्धार्थ मिश्र-
ये जमाना भी क्या अजीब लगता हैं
कुछ लोग ज़्यादा जी ले तो सबकों बुरा लगता है
और अगर कहीं लोग ज्यादा मर गए
तो जमाना दहशत में लगता है-
चाहता था की मैं भी खुश रहूं.....✍️
पर सुना है हर चाहत पूरी कहां होती हैं-
मासूम हूँ इसीलिए ऐसा हूँ
तुम जेसा होता तो यक़ीन मानो बहोत खुश होता-
खुश तो वो रहते है जो जिस्मों से मोहब्बत करते है
रूह से मोहब्बत करने वालों को अक्सर तड़पते ही देखा है-
इश्क़, प्यार, मोहब्बत, ये सब खुदा के नाम है
ये दुनियाँ अब तलक इस बात से अनजान है-
ये दुनिया बड़ी नराज़ सी चल रही है मुझसे,
अब उन्हें क्या पता खुद से खुश तो मै भी नही हूँ-
हम कुछ ना कह सके उनसे इतने जज्बातों के बाद
हम कुछ ना कह सके उनसे इतने जज्बातों के बाद
हम अजनबी के अजनबी रहे ज़िन्दगी की सारी बातों के बाद
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मेरे आँसुओं को गिनकर खुश़ हो तो खुश़ रहो
मेरी इन रातों को दिन कर खुश़ हो तो खुश़ रहो
मैं जो तुमसे मिलने को तड़पता रहा हर लम्हा
तुम किसी और से मिलकर खुश़ हो तो खुश़ रहो
तुम्हारी दी बर्बादी का सबब किसी से नहीं कहा
रोता देख तिल - तिल कर खुश़ हो तो खुश़ रहो
अपनी साँसों में बसाया और दिल में जगह दी
मेरी आँखों में अब गिरकर खुश़ हो तो खुश़ रहो
मैं तुम्हारे दिल में ही था पर तुम जानें क्या समझे
मेरी यादों में अगर बहकर खुश़ हो तो खुश़ रहो
अकेला था और अकेला रह भी लेगा "आरिफ़"
तुम किसी और के घर रहकर खुश़ हो तो खुश़ रहो
तुम्हारी मुस्कान से भरता रहा अपने "कोरे काग़ज़"
किसी और की हँसी पर मरकर खुश़ हो तो खुश़ रहो-