जिस राह पर मुझे तुमने कभी यूँही बस पुकारा था
हूँ आज उसी राह पर मैं, हाँ। यही वो चौबारा था
याद करता हूँ तो अब पहले-सा नहीं लगता कुछ भी
सबकुछ तो वही है पर, पहले कुछ और नज़ारा था
वो सड़क के पास का पेड़ है अभी भी यहीं मौजूद
दिल था बनाया उसपे, जिसमें छपा नाम हमारा था
कबूतरों की टोली अब भी यहीं करती है मटरगश्ती
कभी उनके हर दाने पर जो लिक्खा नाम तुम्हारा था
तुम्हारे घर को जाती बस में चढ़ तो जाऊँ मैं मगर
तुम बिन तन्हा सफ़र करना, कहाँ मुझे गवारा था
शाम ढले मेरे जाने की जिद और तुम होती उदास
क्यों ना हो नाराज़ आखिर, मैं ही तो तेरा सहारा था
जो आँखें फ़ेर तुझसे कभी घर को बढ़ भी जाते कदम
फ़िर बेबस करने को इनको, काफी एक इशारा था
वक़्त- ए - रुख़सत की घड़ी आ भी गयी तो भी "सूरज"
वस्ल का इंतजार हमको, रहता फिर दुबारा था
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