Sumit Singh   (Sumit Singh ©)
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A Teacher, Part-Time Poet, Language Enthusiast and a Music Lover
Joined 1 June 2017


A Teacher, Part-Time Poet, Language Enthusiast and a Music Lover
Joined 1 June 2017
14 APR AT 13:04

मेरे एक करवट एक सुबह जागी है,
दूसरे करवट है एक शाम ढल रही।
मैं कई रातों का जागा हूं,
उम्र की मोम है आहिस्ता पिघल रही।

जुगनूओं से भरा एक मर्तबान है,
अंधेरे मुझसे ज़रा दूर रहते हैं।
कुछ सपने हैं जो टिमटिमाते हैं,
कुछ डर भी हैं जो महफूज रहते हैं।

सुनो, मुझे ये सब कब चाहिए था,
या शायद चाहिए भी था...
इतनी दूर आकर मुझे,
अब तो रुक जाना चाहिए था..।

सफ़र तो नहीं रुकता,
मगर पांव हैं थक चुके
वक्त के बरगद के शायद,
पात आधे पक चुके।

इस अंधेरी दौड़ का,
कुछ भी है हासिल नहीं,
ये वो सूखा दरिया है,
जिसका है साहिल नहीं।

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8 APR AT 18:29

लम्हों की जहां गुलामी में,
दम कुछ घुटने लगता था..
जीवन कई चुराकर हमने
अपने ग़म को मारा है।

ठोकर खाकर सालों-साल,
रूठ चुकी थीं जो खुशियां,
शायद पहली बार हमीं ने,
उन खुशियों को पुचकारा है।

ऐसे साए जो रातों को,
और स्याह कर जाते थे,
सांसों में घुल कर भीतर,
सीना ज़ख़्मी कर जाते थे,

ऐसे ही सायों को हमने,
आंखों से ललकारा है,
अपनी ही अस्थी से वज्र बना,
अपने ही ग़म को मारा है।

सुमित सिंह©

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14 FEB AT 9:28


क्या चाहत का होना भी कोई अजियत है?
ये गुल अब सूख चुके हैं, हकीकत है।

अब न इनमें रंग है, अब न इनमें बू है,
चमकते महकते रहना, अब महज़ आरजू है।

इन्ही गुलों को इत्र से नहलाया जायेगा,
एक एक पंखुड़ी तोड़ कर चमकाया जायेगा।

ख़ुद नहीं सूखे, किसी की आरज़ू ने सुखाया है,
गुल नहीं, लाशें हैं जिन्हें गुलदान में लगाया है।


- सुमित सिंह

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24 APR 2022 AT 12:42

आह बनकर लफ्ज़ होठों से छलकते हैं,
मसअले सारे मेरे कागज़ पे महकते हैं,
तुम्हें मैं भूल बैठूं, हुआ मुझसे ये भी नहीं,
होश में भी कुछ बोलूं, तो लफ्ज़ बहकते हैं।

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20 APR 2022 AT 0:55

इतना फासला सही है क्या?
अब मुहब्बत नहीं है क्या?
मेरे निशान सारे मिटा दिए,
ये कानों में झुमका वही है क्या?

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16 APR 2022 AT 11:25

तेरी आंखें देख दिल की,
टीस कम हो जाती है,
मुस्कुराना पर जो चाहूं,
आंख नम हो जाती है।

मैं पड़ा कांटों में चीखें भरता हूं,
कतरा कतरा एक एक पल मरता हूं,
पर तुम्हारे देख भर लेने से मेरी,
थमती सांसे फिर गरम हो जाती हैं।

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8 APR 2022 AT 5:28

सफ़र सुहाना हो जाए,
बोलो क्या इतना भी कम है?
मंज़िल से बंधे दो लोग भला,
क्या सफर सुहाना कर लेंगे?
मंज़िल क्या है, एक मातम है,
सब पाते हैं।
खुश केवल हैं वही
सफ़र जो लम्हों से भर लेंगे।

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8 APR 2022 AT 5:20

मेरे दिन बने हैं रेत-से,
रातें बनी हैं खार-सी।
मेरी हो के देख ले सनम,
है बहुत कमी बहार की।

अब और कोई न आस है ,
कुछ भी नहीं मेरे पास है,
तेरे चेहरे से मेरे ख़्वाब भी,
जो महक उठें तो क्या बात है!

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5 APR 2022 AT 12:55

सांवली सी शाम, जहां अंधेरी हो जाती है।
उन्हीं घनेरी झुरमुटों में, एक छल-छल करती नदी है।
सालों से सिमटे हुए भाव सारे,आज खुलकर बह रहे हैं,
और उत्तर में उन मखमली ढलानों पर,
चांद की कुछ रोशनी फिसल रही है।
जी तो चाहता है कि बढ़कर चांद को छू लूं,
और छलकती रोशनी भी पी लूं।
पर नदी का ये किनारा,
भाव जिससे उंगलियां हैं भीग जाती।
मोह इनका मुझसे छोड़ा नहीं जाता,
कोई और ठिकाना इससे बेहतर,
मुझको रास नहीं आता।

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30 MAR 2022 AT 22:44

जो मेरे शीश पे सजते थे, वो पुष्प नहीं अब खिलते हैं,
खण्डित प्रतिमाओं को पूजें, अब ऐसे लोग न मिलते हैं,
मेरी तकलीफ़ का कतरा भर, उनसे न संभाला जाता,
जो खण्डित न होता तो यों बाहर न निकाला जाता।

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