मेरे एक करवट एक सुबह जागी है,
दूसरे करवट है एक शाम ढल रही।
मैं कई रातों का जागा हूं,
उम्र की मोम है आहिस्ता पिघल रही।
जुगनूओं से भरा एक मर्तबान है,
अंधेरे मुझसे ज़रा दूर रहते हैं।
कुछ सपने हैं जो टिमटिमाते हैं,
कुछ डर भी हैं जो महफूज रहते हैं।
सुनो, मुझे ये सब कब चाहिए था,
या शायद चाहिए भी था...
इतनी दूर आकर मुझे,
अब तो रुक जाना चाहिए था..।
सफ़र तो नहीं रुकता,
मगर पांव हैं थक चुके
वक्त के बरगद के शायद,
पात आधे पक चुके।
इस अंधेरी दौड़ का,
कुछ भी है हासिल नहीं,
ये वो सूखा दरिया है,
जिसका है साहिल नहीं।
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