मै अंश हिरण्यकश्यप का
बुराई से अंजान था
खुद अपने पिता के लिया जैसा वीरान था
वो अहंकार ले बैठे अपने ही अस्तित्व का
विदंबना की भक्ति की उसने, खुद ही लाचार था
विष्णु का भक्त मै कांटों में एक फूल सा,
अहंकार के अँधेरे में दीपक अनुकूल सा|
जब आग लगी मन में शंका कि विष्णु मुझमें यु समाए,
जो भक्ति न करे वो जैसे खुद भयभीत हो जाए|
जो होलिका ले बैठी मुझको शरण में अपने जलाने,
मै भी जा बैठा उस पथ भक्ति को अपने आजमाने|
जल गया अहंकार उसका कर बैठी हाहाकार तो,
जिसने की भक्ति विष्णु की हा मै हु भक्त प्रह्लाद वोl
ये दहन नहीं बस होलिका का, ये है अच्छाई की जीत,
जला डालो अपनी बुराई को होलिका की आग में तबसे है यही रीत|
श्वेता कलोडे
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