23 DEC 2018 AT 19:33

"जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।।"
इसकी एक व्याख्या तो सब जानते हैं-
संत का मन कुसंग से वैसे ही नहीं बदलता जैसे चंदन में सर्प के लिपटने से भी चंदन विषैला नहीं होता।

किन्तु, इस कथन का दूसरा पक्ष भी है-
यदि किसी का स्वभाव सर्प की भाँति विषैला हो, तो वो भी कभी चंदन के गुण ग्रहण नहीं कर सकता। अतः, सर्प भी चंदन की सुगंध नहीं ले पाता।
'विष' सर्प का गुणधर्म है और 'सुगंध' चंदन का। दोनों ही अपना मूल धर्म नहीं छोड़ते और इसलिए एक दूसरे के संग से प्रभावित नहीं होते।

यदि सत्संग से हर व्यक्ति सुधर सकता तो देवी मीरा को विष नहीं पीना पड़ता और प्रह्लाद की रक्षा के लिए स्वयं नारायण, नरसिंह बन कर नहीं आते।
सत्संग और कुसंग से प्रभावित होना व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसकी पात्रता पर निर्भर करता है।

- Chandrika