मैं रूठूं भी तो कैसे रूठूं
तुम्हें मनाना आता नहीं
मैं रोऊँ भी तो कैसे रोऊँ
तुम्हें चुप कराना आता नहीं।
कहते हो तुम्हें ये सब कुछ आता नहीं
हर कोई सब कुछ सीखा जाता नहीं
थोड़ी कोशिश तो तुम कर ही सकते हो
शायद मुझे चुप करा कर मना ही सकते हो।
इक उम्मीद मेरे मन में हमेशा बनी रहती है
क्यों ऐसे में तुम्हारी आँखें झुकी रहती है
क्यों नहीं समझते तकलीफों और बातों को
काश तुम बदल कर देखो अपनी आदतों को।-
ढूंढ रही हूँ अक़्स तुम्हारे
तुम कंही नहीं खोए हो
पर पता नहीं क्यों रोए हो।
शायद तुमने भी कुछ छोड़ा होगा
किसी ने तुम्हें जरूर तोड़ा होगा
खैर जो हुआ उसे भूल जाओ
आगे बढ़कर खुशियों में घुल जाओ।
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इज्ज़त की बात करने वाले सुन ले ज़रा..
तुमने बात सुनी है, हमने तो करतूते देखी है
सबूत के साथ हमने परिवार के सामने बात रखी है।-
अजी! हमारा भी घर जलने से बच जाता
गर हमारे आस-पास आग लगाने नहीं
आग बुझाने वाले होते तो-
शायद अब मैं ठीक हूँ
अकेली हूँ पर खुश हूँ।
न कोई शोर-गुल है
न हो रही अब कोई भूल है।
शांत माहौल और मेरी किताबें है
इक कमरे में मैं और मेरी बातें है।
बहुत-सारी गुत्थी सुलझानी है
कुछ किस्से और कहानी अब पुरानी है।
ये इश्क़-मोहब्बत-प्यार सब छूटते हैं
अब घरवालों के अलावा कोई नहीं रूठते हैं।
चलो एक नई सफर की शुरुआत करनी है
बस अब अपनी मंजिल की राह ढूंढनी है।-
दिल करता है कि अब शांत हो जाऊं,
बस शांत हो कर दूसरों को सुनूँ,
शायद व्याकुल मन शांत हो जाए,
उथल-पथल हो रहे सवालों का जवाब मिल जाए।
पर एक सवाल जो मुझे खुद से पूछना है,
जिसका जवाब भी मुझे खुद ढूंढना है,
पर कोई राह नहीं दिख रही मुझे,
न दिख रही है कोई मंजिल मुझे।
हाँ, एक सपने को साकार करना है,
पैसों को रुपए का आकार करना है,
सुना है आज कल कुछ लोग मेरे ही चर्चे करते है
पूछना है कि आखिर वो ये काम कैसे करते है?
पूछना है कि आखिर वो ये काम कैसे करते है?-
सुनो! तुम्हारे साथ बस इक बार इक कप चाय पी है मैंने
अब हर बार हर घूंट मुझे तुम्हारे मेरे पास होने का एहसास दिलाती है।-
जरूरी नहीं हर मुस्कान इश्क़ की हो
कभी-कभी घर वालों की बातें भी हँसा देती है
और जरूरी नहीं हर याद आशिक़ी की हो
कभी-कभी परिवार के लिए भी आँखे अश्क़ बहा देती है-
याद है उस रात मुझे वो तुम्हारा आखिरी कॉल
वो तुम्हारी कोशिश जिसमे तुम्हे सिर्फ मेरी चाहत थी
वो बार-बार तुम्हारा माफ़ी माँगना और रोना
वो तुम्हारी कोशिश जिसमे तुम्हे सिर्फ मेरी चाहत थी।
काश उस दिन सामने आ जाते
मेरे मना करने पर फिर से मनाते
काश उस दिन तुम मुझे गले लगा लेते
वो पैगाम की जगह तुम खुद आ जाते।
कोसती हूँ अपनी नादानी को मैं
तुम्हारे लाख बोलने पर नहीं रुकी मैं
ग्लास टूटने पर जुटता नहीं दरार पड़ता है
बस ऐसा कुछ कुछ बोल गई मैं।
सब ने मिल-जुल कर समझाया
सिर्फ तुमने नहीं तुम्हारे दोस्तो ने भी मनाया
मेरी नादानी आज मुझे खलती है
कि मैंने तुम्हें नहीं तुम्हारी यादों को सँजोया-