मैं गर किस्सा तो वो किताब थी l
मैं बहता पानी और वो आब थी ll
मैं पूछता रहा सवाल उससे ताउम्र l
और हर उलझन का वहीं जवाब थीं ll
- समर्पित सिंह राठौर-
पहलें प्यार का तराना ( भाग -2 )
मुलाकातों का दौर आजकल कम था l
और रातों का आलम ज़रा नम था ll
अब खोई -खोई सी वो रहती थी l
मिलने पर कुछ भी ना वो कहती थी ll
अब इम्तिहान का समय बिल्कुल पास था l
ये लम्हा मेरे लिए बड़ा ही खास था ll
अब फिर मेरे हाथों में उसका हाथ था l
रात दिन उसका साया मेरे साथ था ll
मैं खुद भी पढ़ता उसे भी पढ़ाता था l
इम्तिहान में ख़ूब हौसला बढ़ाता था ll
परिणाम का दिन था महफिल जमी थी l
मगर मुझें तो उसकी ही कमी थी ll
उसे देखा तो पाया वो दूर खड़ी थी l
मैं खुश था पर वो बेचैन बड़ी थी ll
मैंने देखा था अंक तो उसके अच्छे थे l
पर हमारी किस्मत के धागे कच्चे थे ll
जाते-जाते भी उसे मुझें सताना था l
पिता की बदली के विषय में बताना था ll
वो दिन उसका मेरे शहर में अंतिम था l
सुनकर आँखों से बरसा सावन रिम-झिम था ll
अब उसे रोक पाना नामुमकिन था l
बस दिल का टूट जाना ही मुमकिन था ll
उसे भुलाने को ये ज़िन्दगी नाकाफ़ी थी l
दिल में उसकी यादें बसी भी तो काफी थी ll
ये मेरे प्यार का अधूरा सा फसाना था l
कुछ ऐसा मेरे पहले प्यार का तराना था ll
- समर्पित सिंह राठौर
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पहले प्यार का तराना ( भाग -1)
आज का किस्सा ज़रा पुराना हैं l
ये मेरे पहलें प्यार का तराना हैं ll
रूठने-मनाने का सफर सुहाना था l
आशिकी में बिता सारा ज़माना था ll
बरखा का ज़ोर था पर स्कूल जाना था l
उसे देखने का यहीं एक बहाना था ll
लेक्चर में जब नज़रें उस पर जाती थीं l
वो भी मंद-मंद खूब मुस्कुराती थीं ll
मेरी मोहब्बत अब रंग ला रहीं थीं l
प्रेम की गाड़ी पटरी पर आ रहीं थीं ll
हर कॉपी के पीछे नाम उसका था l
मेरी ग़ज़लों में ज़िक्र तमाम उसका था ll
मैं लिख कर कुछ जब उसको सुनाता था l
उसका हाथ अपने हाथों में पाता था ll
14 फरवरी का दिन था कठिन घड़ी थी l
इज़हार मैं करू या वो मुश्किल बड़ी थी ll
हिम्मत कर मैंने इज़हार कर ही दिया l
उसकी नज़रों ने इकरार कर ही दिया ll
वो दिन मेरी बर्बादी का आगाज़ था l
इकरार के बाद उसका नया अंदाज़ था ll
पहलें जो देख कर नज़रें झुकाती थी l
अब बात-बात पर आँखें दिखाती थीं ll
बदलता वक़्त उसे भी बदल रहा था l
साथ मेरा उसे हर दिन खल रहा था ll
दोनों के दरमियां काफी फ़ासला था l
किसी के दखल का ये सारा मसला था ll
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आज उससे बिछड़े तो मालूम हुआ मौत क्या चीज़ है l
ज़िन्दगी वो थी जो हम उसकी महफ़िल में गुजार आए ll
-समर्पित सिंह राठौर
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ग़ज़ल
मैं रात के अंधेरे में जुगनु सा फिरता हूँ l
जलता हैं दिल तो फ़रियाद करता हूँ ll
अफ़सोस ये हैं ख़ुदा भीं मिरा ना रहा l
मैं हर दिन एक नहीं सौ बार मरता हूँ ll
उठती हैं दिल में जब यादों की लहरें l
शफरी सा सपनों के दरिया में तरता हूँ ll
दिल लबरेज़ हैं जफ़ाओं से इस कदर l
कि रात-ब-रात मैं यूँ ही तड़पता हूँ ll
हर हर्फ़ समर्पित का चीख कर बताएगा l
कि किस कदर मैं विरह की आग में जलता हूँ ll
-समर्पित सिंह राठौर
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मुझें मेरे उन हीं दोस्तों ने गिराया l
जिनकी दोस्ती पर ऐतबार बहुत था ll
-समर्पित सिंह राठौर-
मुहब्बत की इस मंडी में वफाओं की ज़रा मंदी हैं l
बिक रहा हैं फ़रेब मगर सच्चाई यहाँ बंदी हैं ll
- कवि समर्पित सिंह राठौर-
फिर रहा हूँ आज दर-ब-दर खुद वफ़ा की तलाश में I
काश मिलें कोई ऐसा जो जान फूंक दे इस ज़िंदा लाश में ॥
-समार्पित सिंह राठौर-
गर पूछोगे औरों से तो मुझें बुरा ही पाओगें l
मुझसे मिलोगे तो मुस्कुरा कर ही जाओगे ll
करके तो देख लो तुम मेरे प्यार पर यकीं l
गर हो गया यकीं तो मुझें टूट कर ही चाहोगे ll
-समार्पित सिंह राठौर-
मेरा यार कभी मुझसे दोस्ती निभाना नहीं भूला l
जब–जब मिला मौका, दिल दुखाना नहीं भूला ll
उसकी फितरत में बेवफाई इस कदर बसी थी l
हम करते रहे वफा, वो धोखा देना नहीं भूला ll
दूध पिलाता रहा मैं एक आस्तीन के सांप को l
आखिरकार वो एक दिन मुझे डसना नहीं भूला ll
जब देखा मासूमियत में छिपा खतरनाक चेहरा l
जिंदगी भर मैं उस यार का बुरा सपना नहीं भूला ll
–समर्पित सिंह राठौर-