Sakhi Bansal❦   (Sakhi🍂)
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Joined 14 January 2019


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Joined 14 January 2019
YESTERDAY AT 1:02

उसने पूछी थी आख़िरी ख़्वाहिश मेरी
ज़िन्दगी बन गई थी अब आज़माइश मेरी
क़ब्र पे आँसू कोई अपना गिरा दे
बस ये थी आरज़ू सदा-ए-जुदाई मेरी

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9 JUL AT 15:55

कुछ यूँ ख़ुद को तेरे नाम कर दूँ,
साँसों को तेरा पैग़ाम कर दूँ।

हो जाऊँ इस क़दर मैं तेरी इबादत में,
हर दर्द को तेरा इनाम कर दूँ।

रख दूँ दिल अपना तेरे क़दमों तले,
खुशियों पे भी तेरा दवाम कर दूँ।

तेरे ज़िक्र में बेचैन रातें काट लूँ,
आँसुओं को भी तेरा सलाम कर दूँ।

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6 JUL AT 13:54

काश तू चाँद और मैं सितारा होता,
रात भर तेरी बाहों में गुज़ारा होता।
तेरे नूर में खिल उठती मेरी चमक,
कायनात-ए-नज़र में भी शरारा होता।

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4 JUL AT 1:37

शीशा क्या बताएगा ख़ूबसूरती तुम्हारी
आख़िर उसकी बर्दाश्त की भी एक हद है
तुम्हारा अक्स समेटने की उसने हिम्मत नहीं,
चटक जाएगा आख़िर
ये तो बस मेरा दिल है, जो अब भी धड़क रहा है,
तेरे हुस्न के बोझ तले भी, बेख़ौफ़,
बेसबूत गवाही दे रहा है

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3 JUL AT 16:44

मेरी नज़र की तलाश हो तुम
मेरी रूह पर नक्क़ाश हो तुम
पीते हूँ तेरी आँखों के मयकदे से
लोग कहते हैं, सख़ी अय्याश हो तुम

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23 JUN AT 7:50

तू पलट कर आ तो सही,
इक दफ़ा निगाहें उठा तो सही।

मैं भुला दूँगा दिल से सारे ग़म,
मेरे लिए न सही, मुस्कुरा तो सही।

न दवा लगी, न दुआ लगी,
मैं संभल जाऊँ, ज़हर पिला तो सही।

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24 MAY AT 7:26

मेरे दिल को अब किसी से कोई गिला नहीं
ये शिकवे, शिकायतें...
ये रंजिशें, ये तल्ख़ियाँ
तेरे क़रीब इनका कोई सिला नहीं

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24 MAY AT 2:11

तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो,
गुनाह-ए-इश्क़ भी किया,
और सज़ा-ए-जुदाई पर सवाल करते हो।
क़सूर अपना था,
इश्क़ में डूब जाने का,
अब शिकवा भी उसी तूफ़ाँ से हाल करते हो।

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11 APR AT 2:41

वो ख़्वाब थी, आंखों में दमक भरती थी,
मैं अश्क था, मुझसे तो चमक डरती थी।

मोहब्बत नहीं शहनाई थी, बंद दरवाज़े के पीछे,
जो रूह में बजती थी, साँसों के गीत के नीचे।

वक़्त बदला, और उसका साथ भी छूट गया,
वो ख़्वाब ही था, जो मेरी पलकों से रूठ गया।

वही नाम दुआओं में, छुप-छुप के आता है,
दिल के हर कोने से, दिल उसे ही ढूंढ लाता है।

हम एक ही ग़ज़ल के, दो मिसरे हो गए,
मक़्ता और मत्तला के, फासलों में खो गए।

वो पहला मिसरा था, और मैं आख़िरी रहा,
ग़ज़लों में हाज़िरी था, दिल-ए-काफ़िरी रहा।

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11 APR AT 2:40

वो मुस्कान थी, या पहली बारिश का नूर था,
सूखे जज़्बातों में, कोई भर दे जैसे सुरूर सा।

उसकी आवाज़ थी, शाम की पुरानी ग़ज़ल,
दर्द भी था उसमें, और सुकून का नज़ल।

चहरा उसका, भोर का पहला पहर हो जैसे,
पहाड़ों से उतरी, नदी की पहली लहर हो जैसे।

नज़रें बात करती थीं, जैसे रात का अंदाज़,
हर लफ़्ज़ में छुपा हो, कोई गहरा राज़।

मोहब्बत मेहंदी बन के, चढ़ गई हाथों में,
रंग भी दिया, और छोड़ गई रातों में।

चेहरा था उसका, आईने की तसवीर,
हर बार नया, पर वही दर्द की लकीर। (Continued)

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