Sakhi Bansal❦   (Sakhi🍂)
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Joined 14 January 2019


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11 APR AT 2:41

वो ख़्वाब थी, आंखों में दमक भरती थी,
मैं अश्क था, मुझसे तो चमक डरती थी।

मोहब्बत नहीं शहनाई थी, बंद दरवाज़े के पीछे,
जो रूह में बजती थी, साँसों के गीत के नीचे।

वक़्त बदला, और उसका साथ भी छूट गया,
वो ख़्वाब ही था, जो मेरी पलकों से रूठ गया।

वही नाम दुआओं में, छुप-छुप के आता है,
दिल के हर कोने से, दिल उसे ही ढूंढ लाता है।

हम एक ही ग़ज़ल के, दो मिसरे हो गए,
मक़्ता और मत्तला के, फासलों में खो गए।

वो पहला मिसरा था, और मैं आख़िरी रहा,
ग़ज़लों में हाज़िरी था, दिल-ए-काफ़िरी रहा।

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11 APR AT 2:40

वो मुस्कान थी, या पहली बारिश का नूर था,
सूखे जज़्बातों में, कोई भर दे जैसे सुरूर सा।

उसकी आवाज़ थी, शाम की पुरानी ग़ज़ल,
दर्द भी था उसमें, और सुकून का नज़ल।

चहरा उसका, भोर का पहला पहर हो जैसे,
पहाड़ों से उतरी, नदी की पहली लहर हो जैसे।

नज़रें बात करती थीं, जैसे रात का अंदाज़,
हर लफ़्ज़ में छुपा हो, कोई गहरा राज़।

मोहब्बत मेहंदी बन के, चढ़ गई हाथों में,
रंग भी दिया, और छोड़ गई रातों में।

चेहरा था उसका, आईने की तसवीर,
हर बार नया, पर वही दर्द की लकीर। (Continued)

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26 MAR AT 3:30

बुझते चराग़ में भी थोड़ी आग देख लो,
आँखों में टूटते हुए ख़्वाब देख लो।

जिन रास्तों पे छोड़ गए हमको तन्हा तुम,
उन रास्तों में दर्द की बरसात देख लो।

लब पर हँसी लिए मुलाकात से क्या मिला,
मिलने के बाद दर्द की ये सौगात देख लो।

आईना झूठ बोलता नहीं, साफ़-साफ़ है,
चेहरे पे अब बिछड़ने के हालात देख लो।

मंज़िल की जुस्तजू में हुए दर-बदर मगर,
हर एक क़दम पे इश्क़ के सदमात देख लो।

जिसको बनाया तुमने ख़ुदा प्यार में कभी,
उसके ही हाथ हंजुआ कि ख़ैरात देख लो।

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18 FEB AT 2:42

कोई समझे तो समझ ले ये जुनूँ मेरा, (last part)
मैं तेरी चाहत का अज़ाब लिए बैठा हूँ।

ज़िंदगी पूछती रहती है वजह जीने की,
मैं तेरा नाम ही जवाब लिए बैठा हूँ।

तू कहीं दूर सही, आस-पास लगता है,
मैं तुझे पलकों का हिजाब लिए बैठा हूँ।

जो भी आया मेरे क़दमों में बिछा प्यार लिए,
मैं वहीं टूटता सराब लिए बैठा हूँ।

हसी थी या थी चमक, चारसू थी बिखरी हुई,
मैं होंठों पर तेरा लब-ए-ज़िहाब लिए बैठा हूँ।

'सखी' उम्र भर जिनका क़र्ज़ दिल पर रहा,
मैं उन्हीं लम्हों का बस हिसाब लिए बैठा हूँ।

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18 FEB AT 2:39

मोहब्बत का दरिया था, दिल का एक सफ़ीना,
ख़ुदा मुस्कुरा के बोला — मैं भी सैलाब लिए बैठा हूँ। (Part 3)

तेरी यादें भी गरजती हैं मेरे अंदर कुछ यूँ,
जैसे दिल में कोई रुबाब लिए बैठा हूँ।

तेरी चाहत को निभाने का है बस शौक़ मुझे,
मैं इश्क़ को अपना सवाब लिए बैठा हूँ।

बिन तेरे बेरंग है खुशरंग की ये फिज़ा,
मैं तन्हाई में तपता शबाब लिए बैठा हूँ।

तेरी यादों की ख़ुमारी है कि जाती ही नहीं,
मैं हर इक साँस में शराब लिए बैठा हूँ।

मेरे इश्क़-ओ-पाक का ही सबूत है ये,
मैं अश्कों में भी ज़क़ाब लिए बैठा हूँ। (scroll up for the last part)

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18 FEB AT 2:35

तेरी रहमत के सहारे ही जिया हूँ अब तक,
मैं तक़दीर का इंतज़ार-ए-बाज़याब लिए बैठा हूँ। (Part 2)

इश्क़ अपना ही हथियार बना है अब तो,
मैं जज़्बातों का हुजूम-ए-हिराब लिए बैठा हूँ।

तू जो रूठा तो उजड़ सा गया है घर भी मेरा,
मैं हर कोने में कुछ ख़राब लिए बैठा हूँ।

तेरे ख़ामोश लम्स की सिहरन ताज़ा है अभी,
मैं सन्नाटों का इक ख़िताब लिए बैठा हूँ।

तेरी आँखों में ठहरी दो झीलों की नमी,
मैं पलकों पे वो लुहाब लिए बैठा हूँ।

तेरी हसरत को छुपाया है बड़ी मुश्किल से,
मैं चेहरे पर इक नक़ाब लिए बैठा हूँ।(scroll up for next part)

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18 FEB AT 2:33

तेरे इश्क़ का हसीं इंतिख़ाब लिए बैठा हूँ, (Part 1)
आगोश में आधा माहताब लिए बैठा हूँ।

इक तसव्वुर है जो साँसों में बसा रहता है,
मैं तेरा दर्द बेहिसाब लिए बैठा हूँ।

तेरी यादें हैं बिखरी हुई हर सफ़्हे पर,
मैं पलकों में इक किताब लिए बैठा हूँ।

तेरी यादों का सैलाब दिल से उतरता हि नहीं,
मैं रगों में अब भी वो चनाब लिए बैठा हूँ।

तेरी गैर मौजूदगी में खुशबू भी खलती है,
हाथ में जलते हुए गुलाब लिए बैठा हूँ।

तेरी यादों के सियाह साए से भागा नहीं मैं,
दिल में चुपके से वो ग़ुराब लिए बैठा हूँ। (Scroll up for part 2)

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16 FEB AT 5:13

Part 1
तेरी राहों में अरमाँ सजाते रहे,
हर घड़ी तेरा एहसाँ उठाते रहे।

जो समझे थे अपने, वो गैरों में थे,
हम ग़लत फ़ह्मियों को बढ़ाते रहे।

कभी चाँद बनकर उभरते रहे,
कभी धूप में तन जलाते रहे।

तेरी बातों में था जो जादू भरा,
हम उस वहम को ही निभाते रहे।

तू गया तो लगा बचा कुछ नहीं
हम ख़ुद को भी फिर आज़माते रहे।

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16 FEB AT 5:12

Part 2
न मिला कुछ, फिर भी तेरा नाम ले,
तेरी यादों का सामान लुटाते रहे।

तेरी आँखों में ढलती रही बेबसी,
हम हँसी में भी आँसू छुपाते रहे।

मिलके भी तुझसे फ़ासला न घटा,
बस तसव्वुर में तुझको बुलाते रहे।

ख़ुद से भी अब राब्ता न रहा
तुझे ख़्वाबों में फिर भी मनाते रहे।

'सखी' अब न शिकवा, न कोई गिला,
बस उम्मीद-ए-चराग़ जलाते बुझाते रहे।

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13 FEB AT 7:31

मोहब्बत की राहों में जलते रहे,
तेरी यादों के शोले पिघलते रहे।

नसीबों में ठहरी थी वीरानियाँ,
हम उजड़े मकानों से छलते रहे।

तेरी आँखों में कोई सवेरा न था,
हम उम्मीदों के दीपक से जलते रहे।

हमें चाँद कहकर बुलाया गया,
मगर रातभर हम ही ढलते रहे।

बीच मझधार छोड़कर चल दिए,
हम किनारों पे बैठे मचलते रहे।

'सखी' अब न शिकवा, न कोई गिला,
तेरे वादों के क़िस्से ही पलते रहे।

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