16 JAN 2018 AT 22:30


दिल्ली की सड़कों पे मैंने
कुछ सपने सोते देखे थे
सर्द रात  की
सिहरन में
देह कँपाती
ठिठरन  में
जब सब कमरे के भीतर
तह से तह के अंदर
सोये थे सब अकड़न में
तब उन सूनी सी रातों में
टिमटिम सी उन  आँखों में
कुछ अपने सोते देखे थे
दिल्ली की सड़कों पे मैंने
कुछ सपने सोते देखे थे

उस कम्पन को
कुछ जान गए
कुछ अपना
उसको मान गए
फिर हाथ थामते उनका
कुछ अपनों को पहचान गए  
फिर सूनेपन को
आहट दे
उन सपनों को
गर्माहट दे
सड़कों पे उस रात को मैंने
कुछ अपने होते देखे थे
दिल्ली की सड़कों पे मैंने
कुछ सपने सोते देखे थे

- प्रत्यंचा