27 JUN 2017 AT 19:00

शोर सच्चाई का पर्याय 
बन चुका है
धीमी आवाज़ें बड़ी सरलता
से झूठ में तब्दील कर दी गईं हैं
काक को इतनी बार 
इतने ऊँचे ऊँचे स्वरों में
सुना गया है
कि उसे अब कोयल से अधिक सुरीला
माना जाने लगा है
विरोध का स्वर इतना बेसुरा है कि
उसे सुनना निषेद है....और विरोधी
का जीना....
भीड़ से इतर खड़ा आदमी या तो पागल
है या महामूर्ख और
उसकी दुबली पतली सी आवाज़ भीड़ के
कोलाहल के मीटर से बाहर है...
एक पंक्ति में चींटियों की तरह चलने
को "आदर्श मनुष्य"  की
परिभाषा के तौर पर स्वीकृति मिलने
लगी है और सोचने समझने की
प्रवृत्ति को एक भयंकर विकार की
संज्ञा दी जाने लगी है....

कुछ पागल सरफिरे फिर भी कोयल की 
कूक सुनते हैं , सोचते हैं,
आवाज़ उठाते हैं .....
एक इंच के लोहे की
परवाह किये बग़ैर...

- Rahulshabd