Rahul   (आरिश)
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Joined 5 February 2018


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29 NOV 2023 AT 9:03

गनीमत है तेरा इक नज़र देख लेना,
हुआ कैसा मुझ पर असर देख लेना,
तेरे संग पाई कैसी मंजिल है मैंने,
जानने को बीता सफर देख लेना।
रुसवा सा जो लगने लगूँ अब कभी,
तेरे इश्क़ से रोशन जिगर देख लेना।
डरायें अँधेरे जो जिन्दगी के कभी,
संग रोशन हैं कैसे मगर देख लेना।
अकेला जो लगने लगे फिर कभी,
बिठा के सामने जी भर देख लेना।
जिन्दगी में आयेंगे कई मोड़ लेकिन,
चल के साथ आयी डगर देख लेना।
अपनी कमियाँ दिखने लगें खूब तुम्हें,
हासिल-ए-जमा फिर उधर देख लेना,
साथ तेरे है 'आरिश' हवा की तरह,
न यकीं हो तो चाहे जिधर देख लेना।

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13 NOV 2022 AT 0:03

मेरे भीतर एक "ब्लैक होल" बसता था,
पास आने वाले हर अच्छे बुरे पल को,
समेट अपने अंदर खींच लेता था।
पहले पहल,
पास के बुरे अनुभवों को ढकेल देता था मैं उसमें,
खुशियाँ तो कभी थी नही समेट लेने को,
तो इक्कठा करता था मैं गम अपने हिस्से के,
खींच उन्हें भीतर ढकेल देता था गहराइयों में,
ताकि दिखे किसी को तो एक काला गहरा शून्य!
फिर उस शून्य में तुम आयी,
जगमगाती किसी नए बनते तारे की तरह,
चमकती, सब रोशन करती।
मैं डरता रहा तुम्हें पास लाने को,
डरता रहा अपने भीतर के गहरे अँधेरे से।
पर तुमने जब भर दी,
मेरी उँगलियों के खाली जगहों में अपनी उँगलियाँ,
जैसे सारा अँधेरा छटने लगा,
समय और आयाम लिखने लगे प्रकृति के नए नियम।
तुम्हारे आने से अब कुछ भीतर नही रहता,
भीतर समेटा हुआ हर दर्द,
मुस्कान के रास्ते बाहर बह जाता है।
जब तुम कहती हो, तुम्हारे अंधेरों से नही डरती मैं,
मानो हज़ार तारों की चमक से भर जाता हूँ मैं।
मेरे भीतर जो "ब्लैक होल" बसता था ना,
अब वहाँ मानों,
अनंत आकाशगंगाओं के,
अनंत चटक चमकीले तारे रहने लगे हैं।

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2 SEP 2022 AT 20:31

सालों से मैं घर बैठा हूँ,
जाने क्या क्या कर बैठा हूँ।
पैसों से हैं जेबें खाली,
यादों से मैं भर बैठा हूँ।
करने हैं तो काम कई पर,
खाली मैं दिन भर बैठा हूँ।
कांधों पर था बोझा डाले,
लेकर अब मैं सर बैठा हूँ।
छूने को हैं तारे सारे,
उड़ने से मैं डर बैठा हूँ।
बातें हल्की कर भी लूँ मैं,
ले सीने सागर बैठा हूँ।
हँसता हूँ पर अब भी तो मैं,
ऐसा ले तेवर बैठा हूँ।
लड़ता हूँ दुनियादारी से
मैं हो पैग़म्बर बैठा हूँ।

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30 AUG 2022 AT 18:38

खुद सी पागल एक कोई है,
उस पर अब मैं मर बैठा हूँ।
भटका हूँ जिस प्यार की खातिर,
पाकर उसको तर बैठा हूँ।
पूज रहा हूँ उसको अब मैं,
होकर अब काफ़र बैठा हूँ।
खिल जाता हूँ देख के उसको,
पाकर अब गौहर बैठा हूँ।
रूह कभी की दे दी उसको,
देकर अब पैकर बैठा हूँ।
फिरता था आवारा 'आरिश',
अब उसके भीतर बैठा हूँ।

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8 APR 2019 AT 15:43

जीवन की बहती धारा में
कभी कहीं मैं रुक जाता हूँ
भाग सभी अपनों से मैं
अपने भीतर लुक जाता हूँ
पूछ न मेरा हाल कभी तू
झूठ बोलकर चुक जाता हूँ
इश्क़ में तू भी थोड़ा झुकता
मैं तो हरदम झुक जाता हूँ
भाव अगर कहना हो तो
लिखता मैं बे-तुक जाता हूँ।

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8 APR 2019 AT 1:35

न जाने कैसी ये घनी रात आयी है
जिसमें कोई उम्मीद-ए-सहर ही नहीं
बसे रहते थे कभी जिनकी साँसों में
उनकी बातों में अब मेरा ज़िकर ही नहीं
प्यार जताने वाले बाद उनके भी मिले
पर अब दिल को कोई मो'तबर ही नहीं
भटकना है अभी यहीं बरसों तुझे आरिश
सफ़र है तेरा लंबा, कोई हम-सफ़र ही नहीं

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7 APR 2019 AT 1:38


वो कविताएं जिनमें लिखता था मैं तुमको
अब लिख नही पाती है कलम उनको
वो दर्द जो रिसता था स्याही में,
सूख सा गया लगता है।
लगता है तुमको अब भूलने लगा हूँ मैं
फिर तुमको खो देने के डर से,
लिख देता हूँ एक कविता,
हमारे प्रेम की।
टहल आता हूँ,
भूली बिसरी गलियों में,
जिनमें बिखरी पड़ी हैं यादें तुम्हारी,
समेटे मेरे रूह के टुकड़ों को।
भले कुरेद उठते हैं नासूर सभी
पर दर्द की स्याही से आती
प्रेम की खुशबू ही जरिया है
तुम्हें अपने भीतर पाने का।
कविताएं ही हैं आखिरी कड़ी
हमारे प्रेम की


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4 APR 2019 AT 3:18

बड़े शहरों में
ऊँची इमारतों में
गलियों के कोनों में
भीड़ भरी ट्रेनों में
भागती सड़कों पर
बस्ते टंगे कंधों पर
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
धूप में तपते
ठंड से ठिठुरते
रातों को जगते
देखोगे तो मिल जायेंगे
सैकड़ों थके बुझे चेहरे
लिए 'मुक्कमल ज़िन्दगी का ख़्वाब'

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1 APR 2019 AT 23:31

अब मैं
सोचता नहीं तुमको
क्योंकि
अब मैं जानता हूँ
की ये जो तुम हो
कोई और नहीं,
मैं ही तो हूँ।

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28 MAR 2019 AT 1:20

बॉयोडाटा एक पेज का






(आगे कैप्शन में पढ़ें)

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