मेरे भीतर एक "ब्लैक होल" बसता था,
पास आने वाले हर अच्छे बुरे पल को,
समेट अपने अंदर खींच लेता था।
पहले पहल,
पास के बुरे अनुभवों को ढकेल देता था मैं उसमें,
खुशियाँ तो कभी थी नही समेट लेने को,
तो इक्कठा करता था मैं गम अपने हिस्से के,
खींच उन्हें भीतर ढकेल देता था गहराइयों में,
ताकि दिखे किसी को तो एक काला गहरा शून्य!
फिर उस शून्य में तुम आयी,
जगमगाती किसी नए बनते तारे की तरह,
चमकती, सब रोशन करती।
मैं डरता रहा तुम्हें पास लाने को,
डरता रहा अपने भीतर के गहरे अँधेरे से।
पर तुमने जब भर दी,
मेरी उँगलियों के खाली जगहों में अपनी उँगलियाँ,
जैसे सारा अँधेरा छटने लगा,
समय और आयाम लिखने लगे प्रकृति के नए नियम।
तुम्हारे आने से अब कुछ भीतर नही रहता,
भीतर समेटा हुआ हर दर्द,
मुस्कान के रास्ते बाहर बह जाता है।
जब तुम कहती हो, तुम्हारे अंधेरों से नही डरती मैं,
मानो हज़ार तारों की चमक से भर जाता हूँ मैं।
मेरे भीतर जो "ब्लैक होल" बसता था ना,
अब वहाँ मानों,
अनंत आकाशगंगाओं के,
अनंत चटक चमकीले तारे रहने लगे हैं।
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