इश्क़ में टूट के बिखरो, तो मज़ा आता है, ज़िंदगी यार के सजदे में खाड़ी हो जैसे, मैं क्या कहता हूँ, इसपे उनकी नज़र रहती है, मेरी बातें किसी दफ़्तर की घड़ी हो जैसे, हर इक आशिक़ मुझे घायल ही नज़र आता है, उनको पाने के लिए जंग लड़ी हो जैसे ।।
मैं नाराज़ हूँ, माँ ने मुझे ग़ुस्सा दिखाया है, खींचे कान मेरे, गाल पर थप्पड़ लगाया है, मैं जा रहा था, छोड़ कर के माँ का घर लेकिन, जाऊँ कहाँ उसके बिना, जिसने मुझे चलना सिखाया है!!
मैं जब इन गुनाहों का गुनहगार नहीं था..... मैं सच कहता हूँ इस मर्ज़ से बीमार नहीं था.... मैं अकेला था बहुत पर मैं तलबग़ार नहीं था..... मैं बड़ा काम का था इस तरह बेकार नहीं था.....